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जिनालय आदि का मनोवैज्ञानिक एवं प्रासंगिक स्वरूप ...63 शान्तिदाः पुष्टिदाश्चैव, प्रजाराज्य सुखावहाः । अश्वैर्गजै बलियान- महिषी नन्दी भिस्तथा।। सर्वश्रिय , माप्नुवन्ति, स्थापिताश्च महीतले। नगरे ग्रामे पुरे च, प्रासादा ऋषभादयः।। जगत्या मण्डपैर्युक्ताः, क्रीयन्ते वसुधातले। सुलभं दीयते राज्यं, स्वर्गे चैवं महीतले।। दक्षिणोत्तरमुखाश्च, प्राचीपश्चिमदिगमुखाः।
वीतरागस्य प्रासादाः, पुरमध्ये सुखावहाः।। जिनालय इस लोक में सर्वदा पूजित होते हैं उनमें चौबीस तीर्थकरों के मन्दिर विशेष रुप से पूजनीय है।
जिनमंदिर सभी के लिए पूज्य हैं, प्रजा के लिए सुखदायक हैं, सर्व कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं। सभी को तुष्टि, पुष्टि, सुख, समृद्धि की प्राप्ति करवाने में समर्थ कारण हैं। सर्व लोक में शांति का प्रसार करने वाले तथा राजाप्रजा सभी के लिए मंगल स्वरूप है।
मंडन सूत्रधार के अनुसार नगर के मध्य में परिक्रमा वाला जिनालय हो या बिना परिक्रमा वाला, यदि चार द्वार वाला जिनालय बनवाकर उसमें चौमुखी प्रतिमा स्थापित की जाये तो वह मंदिर श्रेष्ठ, सभी के इच्छित फलों को प्रदान करने वाला और सर्वदा सुखकारी होता है।
यदि गाँव, नगर और शहर में ऋषभ आदि चौबीस तीर्थंकरों के प्रासाद बनवाकर उन्हें प्रतिष्ठित किये जाये तो इस पृथ्वी तल पर रहने वाले समस्त प्राणियों का कल्याण होता है। ___ यदि इस वसुधा पर जगती और मण्डपों से युक्त प्रासादों का निर्माण किया जाता है तो उससे इहलौकिक राज्य सुख एवं पारलौकिक स्वर्गादि सुख सुलभता से प्राप्त होते हैं। ___ यदि इस मध्य लोक में दक्षिणोत्तर मुख वाले और पूर्व पश्चिम मुख वाले वीतराग के प्रासाद बनवाये जाते हैं तो उस नगर में उत्तरोत्तर सुख-समृद्धि बढ़ती है।
इस प्रकार भिन्न-भिन्न आकार-प्रकार के जिनालय सम्पूर्ण विश्व के लिए कल्याणकारी, शिवसुखकारी और मंगलकारी होते हैं।
प्रासाद मंडन में यह भी कहा गया है कि अरिहंत देव की प्रतिष्ठा, पूजा