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60... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन
जिनालय की आवश्यकता क्यों?
अर्हत धर्म में राग-द्वेष के विजेता पुरुष को जिन कहा गया है अथवा हिंसा आदि अठारह दोषों पर विजय प्राप्त करने वाली आत्मा जिन कहलाती है। जिस स्थान पर जिन प्रतिमा विराजमान की जाती है उसे जिनालय अथवा जिनमन्दिर कहते हैं।
जिस प्रकार धर्म पूज्य है, धर्मनायक पूज्य है, धर्मगुरु पूज्य है, धर्म संस्थापक महापुरुष की प्रतिमा पूज्य है उसी प्रकार उनकी प्रतिमा के रहने का स्थान भी पूजनीय होता है। जैसे भगवान पूज्य होते हैं वैसे ही प्रभु का मन्दिर भी पूज्य होता है। श्रमण संस्कृति में मन्दिर को देवता स्वरूप माना गया है। यही वह स्थान है जहाँ चंचल मन विश्रांति पाता है तथा संसार सागर से पार उतरने का आश्रय प्राप्त करता है। इस देव स्वरूप आराधना स्थल को देवालय, प्रासाद, जिनभवन, चैत्य आदि भिन्न-भिन्न नामों से वर्णित किया गया है।
जिनालय की आवश्यकता को सिद्ध करने वाला प्राथमिक हेतु यह है कि अति प्राचीन काल से ही मनुष्य साकार धर्म की उपासना कर रहा है । मध्यकाल में कुछ समय तक विधर्मियों के द्वारा साकार पूजा पद्धति को समूल नष्ट करने के लिए लाखों मन्दिरों एवं प्रतिमाओं का निर्दयता पूर्वक विध्वंस किया गया, उन भीषण आघातों के उपरान्त भी देव तुल्य मन्दिरों की धर्म रूप शक्ति को जड़ से उखाड़ न सके, अपितु कालक्रम में पुनः तद्रूप धर्म मार्ग की स्थापना हो गई। पिछले वर्षों में कुछ सम्प्रदायों ने मूर्ति पूजा का विरोध कर उस पद्धति को तो समाप्त कर दिया है किन्तु गुरु मूर्ति के रूप में मन्दिरों का निर्माण आज भी जारी है। इस प्रकार मन्दिरों के माध्यम से धर्म का आधार दीर्घ काल तक टिका रहता है।
जिनालय की आवश्यकता का दूसरा पहलू उसका ऊर्जामय वातावरण है। मन्दिर की आकृति एवं वहाँ होता निरन्तर मन्त्रों के पाठ की ध्वनि का पुनरावर्तन आराधक को ऊर्जा प्रदान करता है। जब हम हिंसक या विकारयुक्त स्थानों में जाते हैं तो स्वाभाविक रूप से हमारे मन में पाप करने के विचार आते हैं जबकि जिन मन्दिर में इसके विपरीत आराध्य प्रभु के प्रति विनय, श्रद्धा एवं शरणागति के भाव उत्पन्न होते हैं। मन्दिर का शांत वातावरण चित्त की कलुषित वृत्तियों को समाप्त कर मन की चंचल गति को स्थिरता देता है। देवालय के पवित्र