________________
जिनालय आदि का मनोवैज्ञानिक एवं प्रासंगिक स्वरूप 59
एवं शिल्पी शिल्प के सम्मान से प्रतिष्ठा को प्राप्त करते हैं; ब्राह्मण जाति को तिलक, अभिषेक, मंत्र क्रिया आदि के द्वारा पूज्यता प्रदान की जाती है परन्तु तिलकादि द्वारा या पदाभिषेक द्वारा उनकी दैहिक पुष्टि नहीं होती, परन्तु उक्त क्रियाओं द्वारा दिव्य शक्ति का संचरण किया जाता है उसी प्रकार पाषाण से निर्मित अथवा किसी अन्य वस्तु से निर्मित जिनेश्वर परमात्मा, शिव, विष्णु, बुद्ध, क्षेत्रपाल आदि की प्रतिमाओं को भी प्रतिष्ठा विधि के द्वारा विशिष्ट नाम देकर पूज्यता प्रदान करते हैं। इसी के साथ भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव उनके अधिष्ठायक होने के कारण मूर्ति को प्रभावक शक्ति प्राप्त हो जाती है।
प्रचलित व्यवहार में देखा जाता है कि लोग मकान, कुँआ, बावड़ी आदि की विधिवत प्रतिष्ठा करके उनकी प्रभावकता में वृद्धि करते हैं उसी प्रकार अरिहंत और सिद्ध परमात्मा की भी विधि उपचार पूर्वक प्रतिष्ठा करने से उनकी प्रतिमा के प्रभाव में अभिवृद्धि होती है ।
दूसरा तथ्य यह है कि प्रतिष्ठा विधि के द्वारा उन प्रतिमाओं में मोक्ष स्थित परमात्मा का अवतरण तो नहीं होता, किन्तु पूर्वाचार्यों द्वारा शास्त्रीय विधि से प्रतिष्ठा संस्कार करने पर सम्यग्दृष्टि देव और अधिष्ठायक देव मूर्ति के प्रभाव में अभिवृद्धि करते हैं तथा प्रतिष्ठाचार्य की विशिष्ट साधना शक्ति साक्षात परमात्म शक्ति के रूप में संक्रमित होती है, जिसके कारण उसमें भगवद् स्वरूप की प्रत्यक्ष अनुभूति होती है और इसी कारण अरिहंत प्रतिमा पूजा और वन्दना के योग्य बनती हैं।
तीसरा तथ्य यह है कि जैन परम्परा में प्रतिष्ठा कार्य यौगिक साधना में निपुण, मंत्र-तंत्रादि विद्याओं में पारंगत, अहिंसादि महाव्रतों के पालक, संयमनिष्ठ आचार्य आदि पदस्थ मुनियों द्वारा सम्पन्न किया जाता है। इस क्रिया के द्वारा केवल मूर्ति की प्रतिष्ठा ही नहीं करते, अपितु अपनी साधना शक्ति एवं तेज का भी उसमें आरोपण करते हैं। जिससे प्रतिमा की शक्ति एवं प्रभाव में एक विशिष्ट वृद्धि होती है, जो उसे अन्य देवी-देवताओं की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली बनाती है।
इस प्रकार सिद्ध होता है कि मूर्ति की अतिशयता एवं प्रभाव शीलता बढ़ाने हेतु प्रतिष्ठा विधि की जाती है।