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जिनपूजा की प्रामाणिकता ऐतिहासिक एवं शास्त्रीय संदर्भों में...305
मध्यकालीन साहित्य और जिनपूजा
मध्यकाल के दौरान जैन धर्म में विशेष परिवर्तन एवं नवीन क्रिया - विधियों का आविर्भाव परिलक्षित होता है। आचार पक्ष की अपेक्षा से देखा जाए तो चैत्यवास का प्रभावी काल होने से चारित्र पक्ष में तो अवनति ही परिलक्षित होती है किन्तु वाद-विवाद, खंडन-मंडन आदि की प्रचुरता होने से श्रुत साहित्य में विशिष्ट विकास परिलक्षित होता है । निवृत्तिमार्गी जैन धर्म में मध्यकाल से ही विधि-विधान सम्बन्धी क्रियाकांड आदि का विशेष प्रचलन प्रारंभ हुआ। इसी के साथ पूजा सम्बन्धी अनेक ग्रन्थों की रचनाएँ भी इस काल में हुई । आचार्य हरिभद्र, आचार्य हेमचन्द्र, आचार्य जिनप्रभसूरि आदि ने इस क्षेत्र में विशेष कार्य किया जिससे हमें जिनपूजा सम्बन्धी निम्न विवरण प्राप्त होते हैं।
आचार्य हरिभद्रसूरिकृत अष्टक प्रकरण में अशुद्ध और शुद्ध के भेद से दो प्रकार की अष्ट पुष्पी पूजा का वर्णन है। जो क्रमश: स्वर्ग और मोक्ष साधिनी है। अष्ट अन्तराय से मुक्त एवं सर्व दोषों से रहित जाई आदि पुष्पों को आठ गुणों की समृद्धि के लिए परमात्मा के चरणों में चढ़ाना अशुद्ध अष्ट पुष्पी पूजा है। यह पूजा पुण्य बंध में निमित होने से स्वर्ग साधिनी कहलाती है।55 पूजा विधि विंशिका में भी पूजा के विविध प्रकारों की चर्चा की गई है। इसमें मुख्य रूप से द्रव्यपूजा और भावपूजा ये दो भेद करते हुए दोनों को एक दूसरे से युक्त माना है । मन, वचन और काया के आधार पर द्रव्य पूजा के तीन भेद किए गए हैं। ग्रन्थकार ने आदर सहित परमात्मा की द्रव्यपूजा करने का निर्देश दिया है क्योंकि यही संसार समुद्र में परम नौका रूप है | 56
ललितविस्तरा टीका में चार प्रकार की पूजा एवं उसके कर्ता का वर्णन करते हुए कहा गया है कि पुष्प, आमिष (नैवेद्य), स्तोत्र, आत्म समर्पण इन चार प्रकार की पूजाओं में उत्तरोत्तर एक दूसरी का प्राधान्य है। 'आमिष' शब्द का तात्पर्य यहाँ प्रणीत भोजन है अर्थात सुन्दर और सरस पक्वान्न यथाशक्ति चढ़ाने चाहिए। देशविरत श्रावक को चारों प्रकार की पूजायें करनी चाहिए और सराग संयमी सर्वविरत साधु के लिए स्तोत्र और प्रतिपत्ति ये दो पूजा करना अचित्त है। इससे द्रव्य एवं भाव पूजा दोनों की महत्ता सिद्ध हो जाती है। 57
श्री षोडशक प्रकरण में प्रतिष्ठा होने के बाद आठ दिन पर्यन्त उस प्रतिमा की निरन्तर पूजा करने एवं शक्ति अनुसार सर्व जीवों को दान देने का उल्लेख किया गया | 58