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304... पूजा विधि के रहस्यों की मूल्यवत्ता - मनोविज्ञान एवं अध्यात्म... दृष्टिगोचर होते हैं। इससे यह ज्ञात होता है कि इन प्रसंगों में जिनमूर्तियों के स्नान महोत्सव भी हुआ करते थे। इन्हीं स्नान महोत्सवों से कालान्तर में सर्वोपचारी पूजा का जन्म हुआ होगा जो कि पर्व आदि विशेष प्रसंगों में ही हुआ करती थी। सर्वोपचारी पूजा के प्रमाण राजप्रश्नीय, ज्ञाताधर्मकथा आदि आगम ग्रंथों में भी उपलब्ध होते हैं। आवश्यक भाष्य में वर्णित जिनपूजा अधिकार के अन्तर्गत भाष्यकार ने संविग्न द्वारा प्रयोज्य वस्तुओं का उल्लेख करते हुए कहा है कि कपूर, चन्दन, कस्तूरी, केसर आदि द्रव्यों से जिनबिम्ब का परम भक्ति पूर्वक विलेपन करें और विभवानुसार यदि पूजा करें तो सुगंधित पुष्पों से अथवा सुवर्ण, मौक्तिक, रत्न आदि विविध प्रकार की मालाओं से सिद्धार्थक, दही, अक्षत, खाजे, उत्तम लड्ड आदि द्रव्यों से तथा आम आदि सुपक्व फलों सहित संविग्न भावनायुक्त होकर नैवेद्य चढ़ावें। पूजा आदि प्रसंगों में विविध उत्तम द्रव्यों का उपयोग करना चाहिए यह इससे प्रमाणित हो जाता है।51 ___ इसी के उत्तरभाग में कहा है कि द्रव्यस्तव पुष्पादि से होता है। आदि शब्द से वस्त्र, गंध, अलंकार आदि का ग्रहण करना चाहिए।52 आवश्यक चूर्णि में भरत चक्रवर्ती द्वारा निर्मित 'सिंहनिषद्या चैत्य' का विस्तृत वर्णन है।53
श्री जीतकल्पभाष्य54 में तीर्थंकर प्रतिमा की पुष्प आदि पूजा करने के सम्बन्ध में आक्षेप करने का प्रायश्चित्त बतलाते हुए भाष्यकार कहते हैं"तीर्थंकर, प्रवचन, श्रुत, आचार्य, गणधर और महर्धिक की अभिनिवेश (दुराग्रह) के वश होकर बार-बार आशातना करने वाला आचार्य पारांचित प्रायश्चित्त का भागी होता है। इसी प्रकार अन्य आशातनाएँ करता हुआ और त्रिलोक-पूजनीय तीर्थंकरों की प्रतिमाओं का प्रतिरूप विनय न करते हुए विपरीत आचरण करें जैसे- वन्दन नहीं करना, स्तुति आदि नहीं करना। यह तीर्थंकर की आशातना है। इस प्रकार तीर्थंकरों की आशातना करने वाला भी पारांचित प्रायश्चित्त का भागी होता है।
आगम सूत्रों एवं व्याख्या साहित्य में आए इन उल्लेखों से यह ससिद्ध है कि जिन प्रतिमा पूजन का विधान वर्तमान प्रचलित कोई नवीन उपक्रम नहीं है यह तो एक प्राचीन अनुष्ठान है। शाश्वत तीर्थों एवं प्राचीन प्रतिमाओं के प्राप्त विवरणों के आधार पर उनकी त्रैकालिक शाश्वतता एवं प्रासंगिकता स्वत: ही स्पष्ट हो जाती है।