________________
जिन पूजा विधि की त्रैकालिक आवश्यकता एवं... ...269 होती है। चैत्यवंदन के फल की चर्चा करते हुए आचार्य कहते हैं कि शुद्ध भाव, शुद्ध वर्णोच्चारण एवं अर्थचिंतन आदि द्वारा की गई वंदना खरे सोने और असली छाप वाले रुपये के समान होती है। ऐसी वंदना यथोचित गुणवाली होने से निश्चित रूप से मोक्षदायक है।
चैत्यवंदन करने का एक मुख्य कारण यह भी है कि चैत्यवंदन तीर्थंकर परमात्मा को वंदन करने तथा उनकी स्तुति करने का अनुष्ठान है। तीर्थंकरों का जीवन शुद्ध, निष्पाप एवं साधनामय होता है तथा कैवल्य प्राप्ति के बाद वे सर्वज्ञ बनकर भव्यजीवों को सत्य तत्त्व और शुद्ध मार्ग का उपदेश देते हैं। निर्वाण प्राप्ति के बाद सिद्ध-बुद्ध, निरंजन-निराकार बनकर मोक्षधाम के सुख को अनुभूत करते हैं। साथ ही एक जीव को निगोद से निकलने में कारणभूत बनते हैं।
चैत्यवंदन के विविध सूत्र एवं उनके अर्थ आदि के चिंतन से परमात्मा के प्रति अहोभाव जागृत होते हैं तथा सूत्रकार गुरुभगवंतों के प्रति बहुमान एवं आदरभाव उत्पन्न होता है। विविध मुद्राओं को धारण करने से शारीरिक एवं मानसिक स्वस्थता प्राप्त होती है।
अपने नाम के अनुरूप यह भावपूजा, भावविशुद्धि में विशेष सहायक बनती है।
जिनपूजा, ध्यान-साधना आदि क्रियाओं में भावना प्रमुख है तो फिर ऐसी क्रियाओं में बाह्योपचार या द्रव्य क्रिया की आवश्यकता क्यों?
साधक के जीवन में जब तक शुद्ध भाव पूर्णत: जागृत न हो तब तक सम्यक भावों को जगाने, उन्हें स्थिर करने तथा उनके सतत अनुभव के लिए क्रिया का आलंबन अत्यंत आवश्यक है। - उच्च आत्मदशा की प्राप्ति के बाद यद्यपि स्थूल क्रिया का महत्त्व कम हो जाता है, परन्तु मन अति चंचल होने से उसकी स्थिरता निश्चित नहीं है। द्रव्य क्रिया में जुड़े रहने से भावों की एकाग्रता एवं स्थिरता उस विषय में बनी रहती है।
द्रव्यपूजा के द्वारा परमात्मा के प्रति श्रद्धा और विशेष कर हमारे भटकते हुए मन को परमात्म गुणों पर टिकाने का श्रेष्ठ आलम्बन मिलता है।
अल्पज्ञ, अन्यमति और भावी पीढ़ी जो इन सबसे अनभिज्ञ हैं, उन्हें धर्म