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268... पूजा विधि के रहस्यों की मूल्यवत्ता - मनोविज्ञान एवं अध्यात्म... के समय शुभ अध्यवसायों से आयुष्य कर्म की पूजा में, जिनेश्वर देव तन-मनधन की शक्ति, समय और अन्य द्रव्यों का सदुपयोग करने से अंतराय कर्म का क्षय होता है। इस प्रकार जिन दर्शन एवं पूजन अष्टकर्म निवारण का श्रेष्ठ, सरल एवं अनुपम साधन है। जिनपूजन-वंदन आदि से पुण्य का बंध, कर्मों की निर्जरा, भवोभव में जिन शासन की प्राप्ति तथा अंतत: मोक्षसुख उपलब्ध होता है। चैत्यवंदन-भावपूजा का महत्त्वपूर्ण चरण आचार्य हरिभद्रसूरि के अनुसार
चैत्यवन्दनतःसम्यक्, शुभो भाव प्रजायते ।
तस्मात् कर्मक्षयं सर्वं, ततः कल्याण मश्नुते ।। सम्यक प्रकार से चैत्यवंदन करने से शुभ भाव उत्पन्न होते हैं। शुभ भावों से कर्मों का क्षय होता है और कर्मक्षय से आत्मकल्याण होता है। चैत्यवंदन के द्वारा परमात्मा की भावपूजा की जाती है। कई लोग मात्र अष्टप्रकारी पूजा या द्रव्यपूजा को ही पूजा मानते हैं, जबकि द्रव्यपूजा तो मात्र भावपूजा की तैयारी रूप है। चैत्यवंदन में परमात्मा के गुणों की स्तवना द्वारा आत्मभावों की विशुद्धि होती है और रागादि के संस्कार नष्ट होते हैं। वर्तमान में अनेक लोग भावपूजा की महत्ता को न जानने के कारण उसे गौण कर जाते हैं परन्तु इसकी उपेक्षा करना योग्य नहीं है।
संयोगवश द्रव्यपूजा तो कम-ज्यादा हो सकती है, हर किसी के पास तद्योग्य सामग्री हो यह भी जरूरी नहीं है, किन्तु भाव पूजा को व्यक्ति चाहे तो सुंदर से सुंदर रूप में सम्पन्न कर सकता है। शुभ भाव जागरण का यह अमोघ साधन है। चैत्यवंदन अर्थात जिनमूर्ति की स्तुति, वंदना आदि करना। इसके द्वारा चित्त रागादि संक्लेश से रहित एवं निर्मल बनता है। मन को पाप का त्याग, सम्यक साधना एवं सुकृत करने की प्रेरणा मिलती है। तीर्थंकर के गुणों के चिंतन-मनन, उनके प्रति आकर्षण, अहोभाव आदि के द्वारा तद्योग्य गुणों का जीवन में बीजारोपण होता है। परमात्म स्तुति में तल्लीन मन अशुभ भावों से बच जाता है तथा पुराने अशुभ कर्मों को नष्ट करता है।
शुभ भाव से किए गए विधिपूर्वक चैत्यवंदन से शुद्ध भाव जागृत होते हैं। परिणाम स्वरूप कर्मों का क्षय होता है और अंततः अक्षुण्ण मोक्ष सुख की प्राप्ति