________________
जिन पूजा विधि की त्रैकालिक आवश्यकता एवं... ...267
परमात्मा का वंदन, पूजन आदि करना एक प्रकार का विनय है। मुनि उदय वाचक विनय की सज्झाय में कहते हैं कि
नाण विनय थी पामियेजी, नाणे दर्शन शुद्ध । चारित्र दर्शन थी हुए जी, चारित्र थी गुण सिद्ध ।।
अर्थात विनय से ज्ञान की प्राप्ति होती है और ज्ञान से दर्शन की शुद्धि होती है। सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन से सम्यग्चारित्र की भावना जागृत होती है और चारित्र के आचरण से मुक्ति मिलती है ।
मुक्ति का मूल है सम्यग्दर्शन तथा दर्शन शुद्धि के लिए आवश्यक है जिनदर्शन का सम्यक आचरण । साक्षात तीर्थंकर परमात्मा की अनुपस्थिति में प्रतिमा की आराधना से ही सम्यग्दर्शन एवं मोक्ष की उपलब्धि हो सकती है।
अतः यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि साक्षात तीर्थंकर परमात्मा अथवा उनकी अनुपस्थिति में उनकी प्रतिमा की उपासना से ही जीव की मुक्ति संभव है।
प्रभु दर्शन, अर्चन आदि का मुख्य उद्देश्य है परमात्मा के गुणानुरागी बनकर उनके गुणों को ग्रहण करना एवं अपने जीवन से दुर्गुणों का विध्वंस करना। मूर्ति पूजा जीवन को उज्ज्वल करने का पुष्ट आलंबन है। जिनेश्वर देव की पूजा से पुण्य का बंध होता है तथा अशुभ कर्मों के क्षय रूप निर्जरा होती है। अप्रत्यक्ष रूप से मूर्ति पूजा करने पर दान, शील, तप और भाव इन चार धर्मों की आराधना होती है । अष्टप्रकारी पूजा करते हुए अक्षत, फल, नैवेद्य आदि चढ़ाने से दान धर्म, ब्रह्मचर्य का पालन करने से शीलधर्म, देव दर्शन के समय चारों आहार का त्याग होने से तप धर्म और वीतराग परमात्मा का स्तुति स्तवनादि द्वारा गुणगान करने से भाव धर्म का पालन होता है । इस प्रकार जिनपूजा के द्वारा चतुर्विध धर्म का पालन होता है।
श्री जिनेश्वर देव के दर्शन करने से आठो प्रकार के कर्मों का क्षय होता है। जैसे कि मूर्ति के सन्मुख चैत्यवंदन आदि द्वारा गुण स्तुति करने से ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय, जिन प्रतिमा का भावपूर्वक दर्शन करने से दर्शनावरणीय कर्म, जिन दर्शन के समय सभी जीवों के प्रति समभाव आदि की भावना रखने से अशाता वेदनीय कर्म, मूर्ति के समक्ष अरिहंत और सिद्ध गुणों का स्मरण करने से मोहनीय कर्म, जिनेश्वर परमात्मा के नाम स्मरण से नाम कर्म, वीतराग दर्शन एवं पूजन से नीच गोत्र कर्म, जिन दर्शन एवं पूजन