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270... पूजा विधि के रहस्यों की मूल्यवत्ता - मनोविज्ञान एवं अध्यात्म... मार्ग से जोड़ने में ये क्रियाएँ सहायभूत बनती हैं। जिन धर्म का वर्चस्व बढ़ता है। परमात्मा का अभिषेक करते हुए और उन्हें पुष्पादि अर्पित करते हुए मन में अत्यंत भावोल्लास एवं आह्लाद् भाव उत्पन्न होते हैं। गुणवानों की भक्ति, प्रशंसा एवं उनके गुणानुराग का अवसर प्राप्त होता है। द्रव्य चढ़ाने से द्रव्य के प्रति आसक्ति कम होती है और भावजगत में उतनी ही अधिक रमणता बढ़ती है।
हम अपने दैनिक व्यवहार में भी देखते हैं कि जब किसी वस्तु का बाह्य स्वरूप सुन्दर होता है तो हमारा भाव जगत भी उतना ही अधिक जुड़ता है। यही कारण है कि जिनपूजा आदि भावप्रधान क्रिया होते हुए भी भावोल्लास को वृद्धिंगत रखने हेतु द्रव्य क्रिया भी अत्यंत आवश्यक है। जैसे मात्र खाना खाने का भाव करने से पेट नहीं भर जाता, पेट भरने के लिए भोजन करने की क्रिया भी करनी ही पड़ती है। वैसे ही भाव जगत में उतरने के लिए द्रव्य क्रिया का आलंबन प्रारम्भिक चरण में लेना ही पड़ता है। जैसे किसी भाषा को सिखने के लिए पहले उसके वर्णाक्षरों को सीखा जाता है, तब उस भाषा के बड़े ग्रंथों को भी पढ़ा जा सकता है। भले ही 'अ से अनार' उस समय उपयोगी नहीं है किन्तु उसको जाने बिना ग्रंथों को पढ़ना भी असंभव है। भाव रूपी महल के निर्माण में द्रव्य पूजा नींव या Base का कार्य करती है। अत: भाव क्रियाओं के साथ द्रव्य क्रिया करना भी आवश्यक माना गया है। पंचामृत अभिषेक के वैज्ञानिक तथ्य
जल के द्वारा अभिषेक करने का वैशिष्ट्य प्राय: सभी परम्पराओं में देखा जाता है। जल कल्याण, संवेदना एवं शीतलता का प्रतीक है। परमात्मा को जल अर्पित करने से हमारे भीतर इन्हीं गुणों का विकास होता है। पंचामृत को पूजा में विशेष स्थान प्राप्त है। जब परमात्मा जन्म धारण करते हैं तब देवता मेरू पर्वत पर विविध नदियों के जल द्वारा भावविभोर होकर परमात्मा का अभिषेक करते हैं। विभिन्न समुद्रों द्वारा लाया गया जल अनेक गुणों से सम्पन्न होता है। वर्तमान में अलग-अलग समुद्रों का जल एकत्रित करना संभव नहीं है अत: पंचामृत द्वारा ही काम चलाया जाता है। पानी में दूध-दही-घी एवं शक्कर मिलाकर पंचामृत तैयार किया जाता है। पंचामृत में इन पाँचों द्रव्यों का समावेश कर एक ही जल में उन सभी गुणों को आरोपित करने का प्रयत्न किया जाता है।
मूर्तियाँ पाषाण, धातु आदि विविध द्रव्यों से निर्मित होती है। वातावरण के