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262... पूजा विधि के रहस्यों की मूल्यवत्ता - मनोविज्ञान एवं अध्यात्म... वर्धन का हेतु होने से कर्मबंधन का कारण बनता है वहीं परमात्मा के चरणों में अर्पित द्रव्य परमात्म भक्ति, गुरु भक्ति आदि के रूप में प्रयुक्त होने से आराधना में सहायक बनता है और संसार के प्रति मर्छा भाव को क्षीण करता है अत: कर्म मुक्ति में कारणभूत बनता है।
जिनप्रतिमा पूजन की आज्ञा आगमोक्त है। तत्सम्बन्धी विधि-विधानों की चर्चा आगम, चूर्णि, नियुक्ति आदि में प्राप्त होती है। तीर्थंकर, गणधर एवं पूर्वाचार्यों द्वारा मान्य होने से जिनाज्ञा का पालन होता है। आज्ञा पालन में ही धर्म और तप की साधना है ऐसा आगम वाक्य है- 'आणाए धम्मो आणाए तवो'
कई लोग कहते हैं कि मूर्ति पूजा में द्रव्य चढ़ाने से यदि धर्म होता है तो साधु के लिए द्रव्य पूजा का निषेध क्यों? साधु के लिए जो क्रिया पाप का कारण है, वह श्रावक के लिए पुण्य का कारण कैसे हो सकती है? । ___ वस्तुत: मूर्ति पूजा का मुख्य हेतु मन को आलंबन देना है। Stage या श्रेणी अनुसार व्यक्ति की आवश्यकता भी बदलती है। जिसने स्कूल जाना प्रारंभ किया हो उस बच्चे को प्रारंभिक A,B,C,D आदि वर्णमाला का ज्ञान करवाया जाता है किन्तु इसका अभिप्राय यह तो नहीं कि पाँचवीं या दसवीं में पढ़ने वाले बच्चों को भी यह पढ़ाया जाए। चश्मे की आवश्यकता कमजोर आँख वाले को है, जिसकी आँख ठीक है उसे चश्मे की क्या आवश्यकता? इसी प्रकार श्रावक
और साधु के stage में भी अन्तर है। जैसे केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद जीव को परमात्मा के आलंबन की आवश्यकता नहीं रहती, शुक्लध्यान प्राप्ति के बाद धर्मध्यान की जरूरत नहीं रहती और सिद्ध होने के बाद देह की आवश्यकता नहीं रहती। इसका अभिप्राय यह तो नहीं कि भगवान का नाम जपना, धर्म-ध्यान करना या मनुष्य देह पाना सभी के लिए हानिकारक है या अनावश्यक है। जिन्हें इसकी जरूरत नहीं उनके लिए वह जरूर हानिकारक हो सकता है। जैसे कि जिसकी आँख कमजोर नहीं है उसके लिए चश्मे या दवाई का प्रयोग अवश्य हानिकारक है। इसी प्रकार भाव जगत में स्थित मुनिराज को ऊँचे पहँच जाने के कारण द्रव्य पूजा की आवश्यकता नहीं रहती और यदि वे अपनावें तो उन्हें हानि ही होगी। ठीक वैसे ही जैसे पाँचवीं कक्षा में पढ़ने वाला विद्यार्थी यदि परीक्षा के समय दूसरी कक्षा की पढ़ाई करने जाए तो उसे हानि ही होगी।