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जिन पूजा विधि की त्रैकालिक आवश्यकता एवं... ...263
इसी प्रकार द्रव्य पूजा किसी हद तक परमात्मा से अनुराग उत्पन्न करती है और द्रव्य में संलिप्त प्राणियों की आसक्ति कम करती है। किन्तु परमात्मा के गुणों के पूर्ण रागी और द्रव्यों की आसक्ति से बिल्कुल परे जो भाव साधु बन गए हैं उनकी श्रेणी द्रव्य पूजा करने वालों से बहुत ऊँची है। द्रव्य के त्यागी होने से अर्पण करने के लिए द्रव्य भी उनके पास नहीं है। उनके भावों में इतनी अधिक उच्चता होती है कि द्रव्य पूजा उनके लिए श्रेष्ठता की अपेक्षा घाटे का ही कार्य करती है। द्रव्य पूजा का ध्येय भाव पूजा में आरोहण करना है और जो भाव पूजा में स्थित हो चुके हैं वह द्रव्यपूजा क्यों अपनाएँ ? तलहटी से शिखर पर जाने हेतु सीढ़ियाँ आवश्यक हैं परन्तु जो शिखर पर पहुँच चुका है वह पुन: सीढ़ियों पर क्यों जाए। अतः साधुओं के लिए द्रव्यपूजा अनावश्यक मानी गई है।
श्रावक वर्ग जिनका पूर्ण दिवस द्रव्य के इर्द-गिर्द ही गुजरता है, उनके लिए द्रव्य का सदुपयोग करने हेतु एवं स्वयं को उच्च भाव श्रेणी में आरोहित करने हेतु द्रव्य प्रयोग आवश्यक एवं सहायक है।
चंचल मन का वशीकरण मंत्र जिनपूजा
प्रत्येक कार्य का एक लक्ष्य होता है। लक्ष्य को सामने रखकर किया गया कार्य शीघ्र सफलता देता है। मूर्ति स्थापना एवं उसकी पूजा करने का भी एक ध्येय है। मनुष्य मन की चंचलता सर्वत्र प्रसिद्ध है। चंचल मन, जो कि स्वभाव से ही विषयासक्त और कामी है, उसे शुद्ध गुणों की ओर प्रेरित करने हेतु किसी विशेष आलंबन की आवश्यकता रहती है। जिन प्रतिमा के सहारे इस चंचल मन को सुधार कर सन्मार्ग की ओर प्रवृत्त किया जा सकता है।
मूर्तिपूजा के द्वारा चंचल मन को परमात्मा के गुणों में तन्मय करके परमात्मा के प्रति बहुमान एवं अनुराग बढ़ाया जाता है। इससे मनुष्य सत्पथगामी एवं गुणानुरागी बनता है । सांसारिक भोग- वांछाओं में लिप्त रहने वाला साधक अनुरागपूर्वक जब परमात्म गुणों का स्मरण एवं अनुमोदन करता है तो उन गुणों को जगाने का ध्येय दृढ़ हो जाता है । प्रागैतिहासिक काल से जिनप्रतिमा की स्थापना, उनका पूजन आदि होता रहा है। इसके आलंबन से मिथ्यादृष्टि से लेकर सर्वविरति निर्ग्रन्थ मुनियों ने भी अपना आत्म कल्याण किया है। वर्तमान में भरत क्षेत्र में तीर्थंकरों का साक्षात अभाव होने से मूर्ति के द्वारा ही उनकी साक्षात अनुभूति की जाती है । आगमों के अनुसार तिर्यंच, मनुष्य, इन्द्र, देवी