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भावे भावना भाविए ...181 यदि दर्शन-वंदन आदि क्रिया में कोई अन्य अंतराय का निमित्त हो तो हमें उसके प्रति किसी प्रकार का दुर्भाव नहीं लाना चाहिए। भावों की गिरावट कर्म निर्जरा के स्थान पर कर्म बन्धन का हेतु बन जाती है। मन्दिर में जाकर सुन्दर यौवन, तीक्ष्ण बुद्धि, नई पोशाक, मधुर कंठ, ऐश्वर्य आदि का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए। स्वयं की प्रशंसा आत्म पतन का मुख्य कारण है। दूसरों के सामने प्रदर्शन के भाव से भक्ति करना हीरे जैसी वस्तु के कोड़ी के मोल बेचने के समान है। अत: अंत:करण की प्रसन्नतापूर्वक परमात्मा का गुणगान करना चाहिए। लोगों की वाहवाही लुटने या वैभव दिखाने के भावों से की गई भक्ति लाभ के स्थान पर हानि का कारण बनती है।
सूत्रोच्चारण के प्रति भी पूर्ण जागरूक रहना नितांत जरूरी है। सूत्रों का अशुद्ध या गलत उच्चारण उसके परिणामों को न्यून कर देता है। कई बार अर्थ का अनर्थ भी हो जाता है और भावों का जुड़ाव भी सम्यक प्रकार से नहीं हो पाता। __चैत्यवंदन विधि प्रारंभ होने के बाद कई लोग स्वस्तिक आदि बनाते रहते हैं। कुछ लोग अन्यों के द्वारा स्वस्तिक आदि हटाने पर कलह करते हुए नजर
आते हैं तो कुछ लोग बनाए हुए स्वस्तिक से खेलते हुए भी नजर आते हैं। इस प्रकार की कोई भी क्रिया करना अविधि एवं अनुचित है। इससे पूर्ण एकाग्रता पूर्वक भावपूजा में जुड़ाव हो ही नहीं सकता। मन्दिर में किसी भी प्रकार के क्लेश युक्त वातावरण में निमित्तभूत नहीं बनना चाहिए।
चैत्यवंदन सम्बन्धी मुद्राओं का भी यथोचित रूप से पालन करना चाहिए। स्वेच्छा अनुसार कभी भी कोई भी मुद्रा नहीं करनी चाहिए। मुद्राओं को गलत ढंग से या प्रमाद भावों से जैसे-तैसे नहीं करना चाहिए। भावपूजा के समय द्रव्यपूजा सम्बन्धी भावों का पूर्णरूपेण त्याग कर देना चाहिए। भावपूजा करते हुए बीच में द्रव्यपूजा हेतु नहीं उठना चाहिए। जैसे- चैत्यवंदन कर रहे हैं और बीच में प्रक्षाल या आरती हो रही हो तो नहीं उठना चाहिए। यदि वह क्रियाएँ करनी हों तो भावपूजा कुछ देर रूककर करनी चाहिए। अन्यथा एक भी कार्य में पूर्ण मनोयोग नहीं जुड़ पाता। भावपूजा करते हुए उसी में पूर्ण मनोयोग एवं तल्लीनता रहे इसका प्रयास अवश्य करना चाहिए।