________________ 180... पूजा विधि के रहस्यों की मूल्यवत्ता - मनोविज्ञान एवं अध्यात्म... स्मरण आदि सहज रूप से होता है। अत: आध्यात्मिक उत्थान एवं मानसिक अभ्युदय हेतु भावपूजा अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।21 भावपूजा में रखने योग्य विवेक जो विवेक एवं उपयोग पूर्वक क्रिया करे वह श्रावक कहलाता है। श्रावक का प्रथम धर्म जयणा है। जिनमंदिर में दर्शन-पूजन करते समय श्रावक को पूर्णरूपेण जागरूक रहते हुए जयणा धर्म का पालन करना चाहिए तथा विवेक बुद्धि का परिचय देना चाहिए। जिनमंदिर में कोई भी कार्य इस प्रकार करना चाहिए कि उससे अन्य लोगों के मन में क्लेश भाव उत्पन्न न हो एवं स्वयं के भावों में न्यूनता न आए। __ परमात्मा की स्तवन, गुणगान आदि मधुर, गंभीर एवं मंद स्वर में करना चाहिए जिससे अन्य दर्शनार्थियों एवं चैत्यवंदन करने वालों को अंतराय उत्पन्न न हो। यदि मूलनायक भगवान के सामने दर्शन आदि करने वालों की संख्या अधिक हो तो द्रव्यपूजा करने वालों को उसमें अधिक समय नहीं लगाना चाहिए। चैत्यवंदन करने वालों को भी, परिस्थिति के अनुसार संघ मन्दिर में भक्ति करनी चाहिए। अन्य दर्शनार्थियों को अंतराय उत्पन्न होने से उनके मन में क्लेश, कषाय या द्वेष उत्पन्न हो सकता है तथा परमात्म भक्ति की अखंडधारा में विक्षेप भी आ सकता है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए जैनाचार्यों ने श्रावकों के लिए गृह मन्दिर का विधान किया है, जिससे कोई भी परमात्म भक्ति में अधिक समय देना चाहे या स्वेच्छा अनुसार परमात्म भक्ति में लीन हो सकता है। कोई श्रावक प्रभु-भक्ति आदि कर रहा हो तो अकारण उनके सामने से नहीं निकलना चाहिए। जाना जरूरी हो तो विवेक पूर्वक झुककर धीरे से जाना चाहिए। मन्दिर में स्वयं के मधुर स्वर को प्रदर्शित करने के भावों से कभी भी भक्ति नहीं करनी चाहिए। कोई अन्य स्तुति कर रहा हो तो उससे अधिक उच्च स्वर में नहीं गाना चाहिए। किसी को मन्दिर विधि आदि न आती हो तो किसी अन्य को क्रिया करते हुए बीच में नहीं रोकना चाहिए। या तो उसके साथ मिल जाना चाहिए अथवा उसकी क्रिया पूर्ण होने पर विनम्र भावों से क्रिया करवाने का निवेदन करना चाहिए।