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182... पूजा विधि के रहस्यों की मूल्यवत्ता - मनोविज्ञान एवं अध्यात्म... चैत्यवंदन विधि में उपयोग
पंचाशक प्रकरण के अनुसार चैत्यवंदन करते हुए पाँच स्थानों में उपयोग लगाना चाहिए। वे निम्न हैं 22
1. क्रिया- चैत्यवंदन आदि करते हुए सूत्रानुसार मुद्रा का प्रयोग करना । सूत्र बोलते हुए मुहपत्ती का प्रयोग करना तथा उत्तरासन से भूमि की प्रमार्जना आदि करना क्रिया उपयोग है।
इसी प्रकार अन्य क्रियाविधियों का भी जागरूकता पूर्वक पालन करना चाहिए।
2. सूत्रों की पद-संपदा आदि का ध्यान रखना सूत्र उपयोग है। 3. अकारादि वर्ण के उच्चारण की शुद्धता रखना उच्चारण उपयोग है। 4. सूत्रोच्चार के साथ अर्थ का भी चिंतन करना अर्थ उपयोग है। 5. जिन प्रतिमा पर अपनी दृष्टि को केन्द्रित कर तीनों अवस्थाओं का चिंतन करना जिनप्रतिमा उपयोग है।
इन पाँचों स्थानों पर श्रावक को पूर्ण उपयोग एवं एकाग्रता रखकर क्रिया करनी चाहिए।
कई लोग शंका करते हैं कि भिन्न-भिन्न स्थानों पर उपयोग रखने से उपयोग पुनः पुनः परिवर्तित होगा इससे एकाग्रता कैसे रह सकती है ?
इसका समाधान आचार्य हरिभद्रसूरि छिन्न ज्वाला के उदाहरण से करते हैं। जिस प्रकार मूल ज्वाला से नई-नई ज्वालाएँ निकलकर मूल ज्वाला से अलग दिखती हैं, फिर भी उन्हें मूल ज्वाला से सम्बद्ध माना जाता है क्योंकि अलग हुई ज्वाला के परमाणु रूपांतरित होकर वहाँ अवश्य रहते हैं, किन्तु दिखलाई नहीं पड़ते हैं। एक घर में रखे गये दीपक का प्रकाश दूसरे घर में दिखलाई देता है। यहाँ मूल घर के झरोखे से निकलकर आया हुआ प्रकाश स्पष्ट दिखलाई नहीं देता है, फिर भी 'प्रकाश निकला है' ऐसा मानना पड़ता है क्योंकि निकले बिना दूसरे घर में प्रकाश जा नहीं सकता है। इसी प्रकार छिन्न ज्वाला का मूल ज्वाला से सम्बन्ध नहीं दिखता, किन्तु उसके परमाणु मूल ज्वाला के पास होने से मूल ज्वाला से सम्बद्ध मानना पड़ता है। इसी प्रकार चैत्यवंदन में भिन्न-भिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न उपयोग होने पर भी, उपयोग परिवर्तन अति तीव्र गति से होने के कारण एक ही उपयोग दिखलाई देता है, किन्तु शेष उपयोगों के भाव भी वहाँ होते हैं।