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अष्ट प्रकारी पूजा का बहुपक्षीय अनुशीलन ...119
परमावश्यक है। तीर्थंकर नाम कर्म के पुण्य से तीनों लोक में परमात्मा की पूजा की जाती है और परमात्मा भी तिलक के समान तीनों लोक में शोभित होते हैं। अतः परमात्मा के ललाट पर तिलक पूजा की जाती है ।
कंठ - कंठ वाणी का उद्गम स्थल है। विशुद्धि चक्र इसी कंठ में स्थित है। जिसका विशुद्धि चक्र जागृत एवं बलवान होता है वह विषय वासनाओं से ऊपर उठकर उपासना के क्षेत्र में ऊर्ध्वगमन करता है। परमात्मा के कंठ से निकलती मधुर वाणी समस्त जीवों का कल्याण करती है। जगत कल्याण के भावों से आप्लावित होकर ही परमात्मा अन्तिम समय तक देशना फरमाते हैं। अतः परमात्मा के परमोपकारी कंठ की पूजा की जाती है।
हृदय - हृदय अर्थात अनाहत चक्र। यह चक्र प्रेम, करुणा, मैत्री एवं समता आदि शुभ भावों का स्रोत है। जिनेश्वर परमात्मा के हृदय में उपकारी एवं अपकारी दोनों के प्रति समभाव रहता है। जैसे बर्फ गिरने से समस्त वन खण्ड जल जाता है वैसे ही परमात्मा के हृदय में रहे उपशम रूपी बर्फ से राग-द्वेष का दहन हो जाता है तथा हृदय में संतोषभाव का संचार होता है । हमारे हृदय में भी ऐसी ही समत्व वृत्ति का जागरण हो इन्हीं भावों से हृदय पर तिलक करना चाहिए।
नाभि - नाभि शरीर का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। नाभि के स्थान पर मणिपुर चक्र स्थित है । शरीर की ऊर्जा को नियंत्रित करने हेतु यह मुख्य केन्द्र है। इस चक्र का ध्यान करने से उदर एवं पाचन विकार दूर होते हैं।
योगीजन आत्म साक्षात्कार के लिए इसी चक्र का ध्यान करते हैं। नाभि स्थान में अंगुल के असंख्यातवें भाग जितने अनावृत्त आठ रूचक प्रदेश हैं। इन आठ रूचक प्रदेश के समान हमारे समस्त आत्म प्रदेशों को कर्ममुक्त करने की प्रेरणा नाभिचक्र से प्राप्त होती है।
जिस प्रकार माँ एवं गर्भस्थ शिशु के बीच सम्बन्ध जोड़ने का माध्यम नाभि होती है। उसी तरह जगत तारक परमात्मा के साथ सम्बन्ध जोड़ने का स्थान नाभि को माना जाता है। नाभि स्थान से निःसृत प्रार्थना Direct परमात्मा तक पहुँच जाती है, ऐसी लोकोक्ति है। अतः परमात्मा से सम्बन्ध स्थापित करने एवं आत्म प्रदेशों को कर्म रहित करने हेतु नाभि स्थान की पूजा की जाती है।
इसी प्रकार नौ अंगों में विशेष शक्तियाँ समाहित हैं। उन्हीं को ध्यान में