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118... पूजा विधि के रहस्यों की मूल्यवत्ता - मनोविज्ञान एवं अध्यात्म... लेता है उसके बाद ही खड़ा होकर चलने लगता है। इन्हीं घुटनों के बल पर छद्मस्थ काल में भगवान ने कठोर साधना की, ध्यान किया, देश-विदेश में विचरण करते हुए केवलज्ञान को प्राप्त किया। ऐसे स्व-पर कल्याणकारी जानु पूजनीय हैं और अहोभावपूर्वक इनकी पूजा करनी चाहिए।
करयुगल (कलाई)- कलाई हाथ की सूचक है। जहाँ घुटने स्वतंत्रता का प्रतीक है वहीं करयुगल नियंत्रण का प्रेरक है। साधना के द्वारा प्राप्त ऊर्जा शक्ति को नियन्त्रित रखने एवं आवश्यकता अनुसार उसके व्यय करने की क्षमता हाथों में ही रही हुई है। हाथों से ही आशीर्वाद दिया जाता है और हाथों से अभिशाप भी दे सकते हैं।
परमात्मा इन्हीं हाथों के द्वारा दीक्षा लेने से पूर्व प्रतिदिन एक करोड़ आठ लाख मोहरों का दान देते हैं। दानशीलता के इसी गुण को प्रकट करने हेतु करयुगल की पूजा की जाती है।
स्कंध (कंधा)- स्कंध आत्मनिर्भरता एवं भारवहन का प्रतीक है। कंधों के आधार पर व्यक्ति सर्वाधिक बोझ उठा सकता है। जब किसी पर कोई जिम्मेदारी सौंपी जाती है तो यही कहा जाता है कि यह कार्य भार तुम्हारे कंधों पर है। इसी के साथ स्कंध को मान कषाय या अभिमान का स्थान भी माना गया है। परमात्मा ने मान कषाय पर विजय प्राप्त कर इस संसार रूप समुद्र को अपनी भुजाओं से पार किया है। उसी सामर्थ्य की प्राप्ति हेतु परमात्मा के दोनों स्कंधों की पूजा की जाती है।
शिखा (सिर)- शिखा या सिर को उत्तम अंग की उपमा दी गई है। शरीरस्थ सात चक्रों में सर्वश्रेष्ठ सहस्रार चक्र का स्थान शिखा है। वहीं से शरीर के समस्त तंत्रों का संचालन होता है। सहस्रार चक्र के जागृत होने पर अतीन्द्रिय (आन्तरिक) शक्तियाँ स्वयमेव जागृत होती हैं। शिष्य की चोटी शिखा स्थल से ही ली जाती है और वासक्षेप भी वहीं दी जाती है क्योंकि शिखा स्थान प्रभावित होने से आन्तरिक ज्ञान जागृत होता है जिससे सहजतया मोक्ष की उपलब्धि होती है। अग्र स्थान पर रही शिखा लोक के अग्रभाग में ले जाए इसी भाव से शिखा की पूजा की जाती है।
ललाट- ललाट आज्ञा चक्र का स्थान है। आज्ञाचक्र को नियंत्रण का केन्द्र माना गया है। स्वयं पर नियंत्रण साधने हेतु आज्ञाचक्र का नियंत्रित होना