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48... पूजा विधि के रहस्यों की मूल्यवत्ता - मनोविज्ञान एवं अध्यात्म...
6. द्रव्य शुद्धि- न्यायोपार्जित धन के द्वारा परमात्म भक्ति करना एवं देवद्रव्य की वृद्धि करना द्रव्यशुद्धि है। धर्मकार्यों में प्रयुक्त धन नैतिकता एवं ईमानदारीपूर्वक अर्जित किया हुआ होना चाहिए। शुद्ध द्रव्य के प्रयोग से भावविशुद्धि भी बनी रहती है। अन्याय एवं अनीति द्वारा उपार्जित धन का प्रयोग करने पर अन्य लोगों के अशुभ एवं दीनभाव भी उससे जुड़े हुए होते हैं जिससे साधक का मन पूजा विधि से जुड़ ही नहीं सकता। श्रावक के लिए न्याय-नीति सम्पन्न वैभव से युक्त होना एक प्रमुख गुण है। अत: श्रावक द्वारा न्याय नीतियुक्त द्रव्य का प्रयोग जिनपूजा का एक अभिन्न अंग है।
7. विधि शद्धि- शास्त्रों के निर्देशानुसार जिनेश्वर परमात्मा की पूजा, भक्ति, चैत्यवंदन आदि करना विधि शुद्धि है। परमात्म दर्शन हेतु जाने वाले श्रावकों को अप्रमत भाव से चित्त की एकाग्रता पूर्वक प्रभु के गुणों का स्मरणचिंतन आदि करना चाहिए। शास्त्रों में कथित एवं पूर्वाचार्यों द्वारा निर्दिष्ट विधि का पालन जागरूकता एवं मनोयोग से करना चाहिए। यहाँ विधि पालन करने के निम्न हेतु हैं
• विधि का पालन करने से परमात्मा एवं आगमवाणी का सम्मान होता है। • शुद्ध रूप से किया गया विधिपालन शुभ भावों का आविर्भाव करता है।
• गीतार्थ विधि का पालन करने से शुद्ध विधि की परम्परा का निर्वाह होता है।
• शुद्ध रीति पूर्वक विधि करने से अन्य देखने वालों को भी उचित मार्ग का ज्ञान प्राप्त होता है।
• सम्यक विधि पूर्वक कार्य करने से मन में प्रसन्नता होती है तथा यथोचित फल की भी प्राप्ति होती है।
समाहारत: इन सात प्रकार की शुद्धियों का पालन विधि युत किया जाए तो द्रव्यशद्धि के साथ-साथ भावों की भी विशद्धि होती है। अध्यात्म मार्ग पर गमन करने का मुख्य उद्देश्य भावों की विशुद्धता ही है तथा सात प्रकार की शुद्धि रूप सात मर्यादाओं के पालन से शुद्धता पूर्वक जिनेश्वर परमात्मा की आराधना होती है। शुद्ध रीति से की गई आराधना शुद्धि के मार्ग पर अग्रसर करती है। शरीर एवं वस्त्रों की शुद्धता तन और मन को प्रसन्न रखती है तथा मन की शुद्धता जीवन के आचार पक्ष को सुदृढ़ करती है और अन्य मर्यादाओं के पालन के लिए समुचित मनोभूमि का निर्माण करती है।