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जिनपूजा - एक क्रमिक एवं वैज्ञानिक अनुष्ठान स्थान ... 49
मर्यादा पालन के प्रेरक पाँच अभिगम
अभिगम, जैन दर्शन का एक पारिभाषिक शब्द है। इसका सामान्य अर्थ है- विनय। परमात्मा के दर्शन हेतु जिनालय जाते समय कुछ आवश्यक मर्यादाओं का पालन करना नितान्त जरूरी है। इसे जैनाचार्यों ने पाँच अभिगम के नाम से उल्लेखित किया है। प्रत्येक क्षेत्र में तत्सम्बन्धी मर्यादाओं एवं विवेक का पालन करना अपेक्षित होता है। यदि वे मर्यादाएँ विनयगुण से समन्वित हों तो और भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं। जीवन के हर क्षेत्र में विनयगुण की व्यापकता है। चाहे स्कूल हो या ऑफिस, लोकसभा हो या आमसभा, न्यायालय हो या चिकित्सालय सभी जगह तद्योग्य विनय एवं औचित्य का पालन किया जाता है। यही व्यावहारिक अनुशासन एवं शिष्टाचार जीवन के विकास एवं निर्माण में सहायक बनता है । जिस प्रकार राज दरबार में या मुख्य अधिकारियों के समीप जाने पर तद्योग्य अनुशासन का पालन करते हुए उनका बहुमान आदि करते हैं तथा उनके स्थान की सर्वोच्चता अभिव्यक्त करते हैं । उसी तरह परमात्मा के सामने उनकी त्रैकालिक सर्वोच्चता एवं त्रैलौकिक सत्ता को अभिव्यक्त करने का मार्ग है पाँच अभिगम । चैत्यवंदन भाष्य के अनुसार पाँच अभिगम निम्न हैं- 1. सचित्त का त्याग 2. अचित्त का अत्याग 3. उत्तरासंग 4. अंजलिबद्ध प्रणाम और 5. प्रणिधान ( चित्त की एकाग्रता) | 5
1. सचित्त का त्याग - त्रिलोकीनाथ जिनेश्वर परमात्मा के दरबार में प्रवेश करने से पूर्व शरीर को सजाने योग्य पुष्प, वेणी, मुकुट आदि सचित्त वस्तुओं तथा दवाई, इत्र, बीड़ी, सिगरेट, मुखवास आदि को मन्दिर प्रांगण के बाहर रखकर जाना सचित्त त्याग नाम का अभिगम है। राजा के द्वारा राजचिह्न के रूप में धारण किए हुए तलवार, छत्र, चामर, मुकुट एवं मोजड़ी इन पाँच `का त्याग किया जाना चाहिए ।" यह त्याग केवल स्वयं के लिए उपयोगी सामग्री के विषय में है। मन्दिर उपयोगी के लिए पुष्प, केसर, नैवेद्य आदि लेकर जा सकते हैं।
सचित्त त्याग अभिगम सम्बन्धी कुछ आवश्यक विवेक निम्नोक्त हैं
• यदि जेब में रखी हुई सिगरेट, पान-मसाला, चॉकलेट, दवाई आदि मन्दिर में लेकर चले जाएं तो उसे स्वयं के उपयोग में नहीं लेना चाहिए । फिर वह पुजारी या अन्य व्यक्ति को दे देनी चाहिए।