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________________ प्रतिक्रमण विधियों के प्रयोजन एवं शंका समाधान ... 217 - 'चंदेसु निम्मलयरा' तक पच्चीस पद होने से वहाँ तक स्मरण करना चाहिए। जिसे लोगस्ससूत्र मुखाग्र न हो उस व्यक्ति को लोगस्स के स्थान पर चार नवकार मन्त्र गिनना चाहिए, परन्तु यह अपवाद मार्ग है। एक नवकार की आठ संपदाएँ हैं। एक-एक संपदा एक-एक श्वासोश्वास परिमाण कही गई है अतः पच्चीस उच्छवासों के स्थान पर चार नवकार गिनने से बत्तीस श्वासोश्वास होते हैं इसी कारण इसे अपवाद मार्ग कहा है। निष्कर्षत: जैन परम्परा में प्रतिक्रमण साधना का सर्वोपरि स्थान है। साधु एवं श्रावक दोनों के लिए ही इसका स्थान शरीर में हृदय के समान है। प्रतिक्रमण और आलोचना से रहित मुनि एवं गृहस्थ जिन धर्म के मर्म को आत्मस्थ कर ही नहीं सकते। इतनी महत्त्वपूर्ण क्रिया यदि मात्र देखा-देखी या कर्त्तव्य निर्वाह के रूप में की जाए तो वह कभी भी सम्पूर्ण सार्थक नहीं हो सकती। इसी पहलू को ध्यान में रखते हुए आम जनता के मन में उठती अनेकविध शंकाओं का निवारण करते हुए उनके मूलभूत प्रयोजनों एवं रहस्यों को यहाँ स्पष्ट किया है। इससे साधक वर्ग शंका एवं तर्क रहित होकर उत्तम भावों से कर्म निर्जरा हेतु अग्रसर हो सकेगा। साथ ही प्रतिक्रमण जैसी अपूर्व क्रिया का आत्मिक आनंद अनुभूत कर सकेगा।
SR No.006249
Book TitlePratikraman Ek Rahasyamai Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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