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212... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना
शंका- इरियावहियं आदि कई सूत्रों को पढ़ने से पहले उसका आदेश क्यों मांगते हैं?
समाधान- किसी भी कार्य को करने से पूर्व आज्ञा ग्रहण करना विनय गुण का प्रकटीकरण है। विनय धर्म का मूल है । विनय के द्वारा कार्य में सफलता एवं जीवन का विकास होता है। इससे पूज्यजनों का सम्मान एवं गुरु-शिष्य और बड़ों-छोटों के बीच अपनत्व तथा मैत्री का सम्बन्ध बना रहता है। साथ ही गुर्वाज्ञा पूर्वक किसी कार्य को करने पर वह निर्विघ्न होता है और गुरु का चित्त प्रसन्न रहने से कठिन कार्य भी सुगम हो जाते हैं । दूसरा तथ्य यह है कि आदेश मांगने के जो आलापक पाठ हैं उसमें सर्वप्रथम 'इच्छामि' शब्द का प्रयोग होता है। उसका अभिप्राय यह है कि जैन धर्म इच्छा प्रधान है। यहाँ किसी आतंक या दबाव से कार्य करने हेतु प्रेरित नहीं किया जाता, व्यक्ति की इच्छा को महत्त्व दिया गया है। इसी वजह से सर्व प्रकार के विधिसूत्रों में 'इच्छामि पडिक्कमामि’ 'इच्छामि खमासमणो' आदि वाक्यों का प्रयोग है। इच्छामि का अर्थ है - मैं स्वयं चाहता हूँ।
'इच्छामि' का दूसरा हार्द यह है कि शिष्य - गुरुदेव के चरणों में विनम्र भाव से प्रार्थना करता है कि भगवन्! मैं आपको वन्दन करने की इच्छा रखता हूँ अतः आप उचित समझें तो आज्ञा दीजिए।
इस प्रकार धर्म क्रियाओं हेतु स्वीकृति प्राप्त करने के कई प्रयोजन हैं। शंका- ईर्यापथ प्रतिक्रमण आदि का कायोत्सर्ग खड़े-खड़े ही क्यों करना
चाहिए?
समाधान- कायोत्सर्ग अर्थात काया का उत्सर्ग करना या उसके प्रति ममत्त्व का त्याग करना । कायोत्सर्ग में आत्मचिन्तन किया जाता है। बैठे-बैठे कायोत्सर्ग करने से प्रमाद आदि आने की सम्भावना रहती है। अन्य किसी कठिन आसन में लम्बे समय तक स्थिरता नहीं रह सकती, जबकि खड़े-खड़े कायोत्सर्ग अधिक स्थिरता एवं अप्रमत्तता पूर्वक किया जा सकता है। अतः खड़े-खड़े कायोत्सर्ग करना चाहिए ।
शंका- साधु-साध्वी पगामसज्झाय सूत्र बोलते समय ओघा कंधे के समीप क्यों रखते हैं?
समाधान- पगाम सज्झाय, यह साधु-साध्वी के दैनिक क्रियाओं में लगे हुए अतिचारों की आलोचना पाठ है । स्वकृत पापों की आलोचना में वीरता की