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________________ 204... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना शंका- प्रतिक्रमण आवश्यक क्यों है? समाधान- संसारी प्राणी छद्मस्थ है अत: उसके द्वारा प्रत्येक क्रिया में अज्ञान या प्रमादवश दोष लग जाना स्वाभाविक है। उन दोषों से निवृत्त होने के लिए प्रतिक्रमण एक अपूर्व कला है। प्रतिक्रमण के द्वारा साधक स्वयं के जीवन की प्रत्येक प्रवृत्ति का अवलोकन-निरीक्षण करते हुए कृत दोषों से निवृत्त होकर हल्का हो जाता है। इसीलिए प्रतिक्रमण को आवश्यक कहा गया है। __इसके पीछे दूसरा तथ्य यह है कि तन का रोग अधिक से अधिक एक जन्म तक पीड़ा दे सकता है, किन्तु मन का रोग एक बार प्रारम्भ होने के बाद, यदि व्यक्ति असावधान रहे तो लाखों जन्मों तक परेशान करता है। इसलिए भी प्रतिक्रमण को आवश्यक कहा गया है। शंका- वर्तमान चौबीसी के शासनकाल में प्रवर्तित प्रतिक्रमण की परम्परा का स्पष्टीकरण कीजिए? समाधान- प्रथम एवं अन्तिम तीर्थंकर की परम्परा के साधु-साध्वियों के लिए अतिचार (दोष) लगे या न लगे, किन्तु दोष शुद्धि हेतु प्रतिदिन दोनों संध्याओं में प्रतिक्रमण करने का विधान है और करते भी हैं। मध्य के बाईस तीर्थंकरों की परम्परा के साधु-साध्वी दोष लगने पर ही प्रतिक्रमण करते हैं। इन दोनों में आचार भेद का प्रमुख कारण यह है कि प्रथम एवं अन्तिम तीर्थंकर के शिष्य चंचल चित्तवाले और जड़बुद्धि वाले होने से अपनी गलती को जल्दी से स्वीकार नहीं करते हैं जबकि मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के शिष्य प्रखर बुद्धि, एकाग्रमना एवं शुद्ध चारित्री होते हैं। अत: भूलों को तत्क्षण स्वीकार कर लेते हैं। इसी कारण प्रथम एवं अन्तिम तीर्थंकर के शासन में प्रतिक्रमण अवस्थित कल्प है, जबकि मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के शासन में यह अनवस्थित (ऐच्छिक) कल्प था। शंका- जब दिनभर पापकारी प्रवृत्तियाँ चालू रहती है फिर सुबह-शाम प्रतिक्रमण करने से क्या लाभ? समाधान- जिस प्रकार कुएँ में डाली गई बाल्टी की रस्सी या आकाश में उड़ाई गई पतंग की डोर अपने हाथ में हो, तो बाल्टी एवं पतंग को हम प्रयास करके पुनः प्राप्त कर सकते हैं। वहीं यदि रस्सी या डोरी को पूर्णतया हाथ से छोड़ दें तो बाल्टी एवं पतंग को खो देंगे। आध्यात्मिक क्षेत्र में भी यही नियम
SR No.006249
Book TitlePratikraman Ek Rahasyamai Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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