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________________ प्रतिक्रमण विधियों के प्रयोजन एवं शंका-समाधान ...201 समाधान- जो लोग यह शंका करते हैं कि पाप कार्यों में संलग्न रहने से पश्चात्ताप या प्रतिक्रमण का क्या अर्थ? वे यह नहीं जानते कि प्रतिक्रमण, पाप क्रियाओं के पश्चात्ताप और उसके दुष्परिणाम आदि के विषय में चिंतन करने एवं शुभ भावों को उत्पन्न करने का सम्यक् उपाय है। जिस प्रकार कड़वी औषधि अरूचिकर होने पर भी स्वास्थ्य लाभ करवाती है। अनिच्छापूर्वक स्कूल जाते बच्चे को कुछ समय बाद अपने आप वह स्थान अच्छा लगने लगता है, वैसे ही प्रतिक्रमण करते-करते पाप क्रियाएँ स्वयं कम होने लगती है। पश्चात्ताप और ग्लानि प्रधान विचार ही असद्कार्यों से पीछे हटने में निमित्तभूत बन सकते हैं, दुष्क्रियाओं के प्रति हेय बुद्धि उत्पन्न कर सकते हैं। जैन धर्म भावना प्रधान धर्म है अत: मन में रहे ग्लानि एवं पश्चात्ताप भाव अनंत कर्मों की निर्जरा में सहायक बनते हैं। इस प्रकार अत्यावश्यक पाप क्रियाएँ होती रहे तब भी प्रतिक्रमण करते रहना युक्तियुक्त है। शंका- पाप-संताप की क्रियाएँ प्रतिक्रमण के बिना क्यों नहीं की जा सकती? इसके लिए प्रतिक्रमण का आग्रह क्यों? समाधान- किसी भी विषय में विचार करना हो तो तत्सम्बन्धी ज्ञान होना जरूरी है। उसी प्रकार पाप की पहचान, संताप करने के हेतु आदि का ज्ञान होने पर ही भावों में उतनी प्रशस्तता आ सकती है। उदाहरण के रूप में कोई व्यक्ति अपने श्रम से अर्जित धन द्वारा वस्तु खरीद कर लाये और वह खो जाए तो उसे दुःख या संताप होना स्वाभाविक है। इस समय संसार में रचा-पचा व्यक्ति उस दुःख को उचित मानेगा, वहीं प्रतिक्रमण आराधक इसे आर्तध्यान अथवा रौद्रध्यान के रूप में स्वीकार कर पाप रूप मानेगा तथा ऐसी स्थिति में दुःख या संताप नहीं करेगा। तो कहने का तात्पर्य है कि वास्तविक पाप-संताप किस सम्बन्ध में करना चाहिए और कहाँ नहीं? यह समझ प्रतिक्रमण जैसी शुभ क्रियाओं के द्वारा ही उत्पन्न हो सकती है। इसलिए प्रतिक्रमण कई दृष्टियों से आवश्यक है। दूसरी बात यह है कि दिवस भर में व्यक्ति अनेक पाप कार्य करता है। उनका स्मरण एवं पश्चात्ताप करने के लिए उसे वैसा माहौल और एकान्त भी चाहिए। प्रतिक्रमण क्रमश: एक-एक सूत्र के रूप में उन्हें ध्यान में लाता है जैसे कि 'देवसिअं आलोउं' सूत्र के द्वारा दिवस सम्बन्धी अतिचारों का चिंतन किया
SR No.006249
Book TitlePratikraman Ek Rahasyamai Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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