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________________ 200... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना धर्म क्रियाओं के आचरण से आभ्यन्तर सुख एवं अनहद सन्तोष की अनुभूति होती है, पुण्य वृद्धि और सुख-समृद्धि बढ़ती है अत: धर्म में बीता समय ही सार्थक और सफल है। __ शंका- यदि प्रतिक्रमण के द्वारा पाप नष्ट नहीं होते, तो फिर प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त की उपयोगिता क्या? समाधान- प्रतिक्रमण से पापों का क्षय नहीं होता ऐसा नहीं है। कितने ही प्रकार के कर्म प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त से ही समाप्त होते हैं। लेकिन हमारी यह धारणा मिथ्या है कि प्रतिक्रमण करते रहें तो पाप कार्य करने में कोई दिक्कत नहीं, क्योंकि प्रतिक्रमण से तयोग्य बंधे हुए कर्म तो नष्ट होंगे ही किन्तु उस ज्ञान शून्य क्रिया से पापभीरूता उत्पन्न नहीं होती और उसके अभाव में जड़मूल से कर्म क्षीण नहीं होते। जबकि दुष्कृत्यों के प्रति ग्लानि उत्पन्न करते हुए भावों से प्रतिक्रमण करने पर बुरे संस्कार स्थायी रूप धारण नहीं करते और संस्कारों से बुराईयाँ और अनैतिकता समाप्त होने लगती है। अन्यथा वही उक्ति होगी कि गलती करते जाओ और माफी मांगते जाओ। जैसे घी, तेल, नमक आदि स्वादिष्ट भोजन इच्छानुसार खाते जाओ तथा Cholestrol और B.P. की दवाई लेते जाओ, पर यह क्रिया कभी भी रोग निवारण नहीं कर सकती। इसी तरह अविधि युक्त प्रतिक्रमण कभी भी कर्मों का सम्पूर्ण क्षय नहीं कर सकता। प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त की सफलता के लिए सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होना प्राथमिक चरण है। सम्यक्त्व का महत्त्व बताते हुए कहा गया है कि 'दानादिक क्रिया नवि दिए, समकित बिन शिवशर्म' सम्यक्त्व रहित दानादिक क्रियाएँ मोक्ष सुख प्रदान करने में समर्थ नहीं है तो फिर प्रतिक्रमण रूपी प्रायश्चित्त कर्मनाश में कैसे सहायक हो सकता है? ___जिनेश्वर परमात्मा ने जिस वस्तु का जैसा स्वरूप बताया है उसे स्वीकार कर वैसी ही श्रद्धा करना तथा आचरण के रूप में अपनाने का मानसिक यत्न करना सम्यगदर्शन है। यदि पाप क्रियाओं के प्रति ग्लानि पैदा हो जाये तो समझ लेना चाहिए कि सम्यक्त्व का बीजारोपण हो चुका है और वही यथार्थ प्रतिक्रमण है। शंका- पाप क्रियाओं के प्रति संताप और पश्चात्ताप उत्पन्न हों, ऐसे शुभ भावों के लिए प्रतिक्रमण एक महत्त्वपूर्ण क्रिया है। किंतु यदि पाप क्रियाएँ प्रवर्त्तमान रहे तो प्रतिक्रमण करने का अर्थ क्या?
SR No.006249
Book TitlePratikraman Ek Rahasyamai Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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