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196... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना
भ्रमण का चक्कर शुरू हो सकता है। देव आदि गति में रहने का काल परिमित होने से पुनः दुर्गति भी होने ही वाली है। इस प्रकार कषायों की अल्पता वाला काल भी परिमित होने से पुनः कर्म उदय के कारण कषायों की प्रचुरता भी होने ही वाली है। इन सबका ख्याल न होने से ही ध्यान अभ्यासी अपनी इस अवस्था में ही इतिश्री मानते हुए दिखाई देते हैं। यदि विषय-कषाय पर सम्पूर्ण विजय प्राप्त करने का लक्ष्य आ जाए, तो फिर तीर्थंकर की बताई हुई ये क्रियाएँ उन्हें भी आवश्यक लगेगी ही। यह बात हमेशा ख्याल में रखनी चाहिए कि तीर्थंकर परमात्मा ने जब इतना सुंदर राजमार्ग बताया है तो यदि इससे भी सरल, सफल
और सुलभ अन्य कोई मार्ग होता तो उससे प्रभु अज्ञात न रहते और जानते हुए न बताएं यह तो शक्य ही नहीं क्योंकि वे अनन्त करुणा के सागर हैं। इसलिए उनका बताया हुआ ज्ञान क्रिया का मार्ग ही आराधना का राजमार्ग है ऐसी श्रद्धा रखकर अधिक से अधिक लाभ उठाने में प्रयत्नशील बनना चाहिए।
जैन धर्म में मानसिक एकाग्रता को ही ध्यान नहीं बताया, वचन और काया की अशुभ प्रवृत्तियाँ छोड़कर शुभ प्रवृत्तियों में वचन और काया को स्थिर करना भी ध्यान ही है। अर्थात प्रतिक्रमण आदि क्रियाओं में जितनी स्थिरता आती है उतना ही ध्यान स्थिर बनता है और साथ-साथ संसार के परिभ्रमण का महत्त्वपूर्ण कारण, देहाध्यास (शरीर की तीव्र आसक्ति) को घटाने का विशेष लाभ होता है, जो आजकल के शिविरों से प्राप्त नहीं होता।
इसलिए ध्यान वगैरह के नाम पर प्रतिक्रमण जैसा महान अनुष्ठान छोड़ देना किसी प्रकार से हितकारी नहीं है, यह सभी हितेच्छुओं को समझ लेना चाहिए।
शंका- वर्तमान में कुछ लोग प्रतिक्रमण आदि क्रियाओं को छूट या अपवाद मार्ग मानकर नित्य दुष्कृत्यों का सेवन करते जाते हैं और फिर प्रतिक्रमण के द्वारा उसकी आलोचना कर लेते हैं यह कितना उचित एवं सार्थक है?
समाधान- प्रतिक्रमण दोष परिशोधन एवं पाप प्रक्षालन की अपूर्व क्रिया है, परन्तु इसका हार्द यह नहीं कि आवश्यकता एवं इच्छानुसार पापवृत्ति करते जाएं और प्रतिक्रमण से उनकी शुद्धि करें। प्रतिक्रमण में ऐसा कोई विधान नहीं है। प्रतिक्रमण अप्रमत्त दशा में जीने एवं सतर्क रहने की शिक्षा देता है, पाप कार्यों से पीछे हटाता है। जैन धर्म में कहीं भी गलत कार्यों में छूट या अत्याग