SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 250
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 188... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना यहाँ उल्लेखनीय है कि उक्त क्षमापनासूत्र साधु-साध्वी ही बोलते हैं। यदि उनकी निश्रा न हो तो गृहस्थ क्षमापना सूत्र के स्थान पर चार बार एक-एक या तीन-तीन नवकार मन्त्र गिनते हैं। समाप्ति खमतखामणा का मुख्य हेतु यह है कि यद्यपि संबुद्धा खामणा के द्वारा सामान्य रूप से और प्रत्येक क्षमापना के द्वारा विशेष रूप से पाक्षिक अपराधों की क्षमा मांग ली जाती है। तदुपरान्त शुभ एकाग्र भाव से बारह लोगस्स सूत्र का कायोत्सर्ग करते हुए कोई विशेष अपराध याद आ गया हो तो उससे पृथक् होने के लिए समाप्ति खामणा करना चाहिए। इसका एक हेतु यह भी है कि यहाँ पर पाक्षिक प्रतिक्रमण पूर्ण होता है और इस पाक्षिक प्रतिक्रमण के दौरान कुछ अविधि हुई हो तो उस भूल को स्वीकार करते हुए उसका पश्चात्ताप करने के लिए भी यहाँ क्षमापना की जाती है। पाक्षिक प्रतिक्रमण की शेष विधि इसके बाद की सर्व विधि दैवसिक प्रतिक्रमण के समान ही है। इसलिए उनके उद्देश्य भी पूर्व निर्दिष्ट ही जानने चाहिए। - विशेष यह है कि इसमें श्रुत देवता एवं क्षेत्र देवता के साथ भवन देवता का भी कायोत्सर्ग किया जाता है। उसका प्रयोजन यह है कि क्षेत्रदेवता का प्रतिदिन स्मरण करने पर मकान का क्षेत्र भी उसके अन्तर्गत होने से तत्त्वत: भवन देवता की स्मृति हर दिन हो जाती है फिर भी पर्व दिन में उनका विशेष स्मरण और बहुमान के लिए स्वतन्त्र कायोत्सर्ग और स्तुति करते हैं। पाक्षिक प्रतिक्रमण में स्तवन के स्थान पर विशेष मंगल के लिए अजित शान्ति बोली जाती है। उसी प्रकार लघुशांति के स्थान पर बड़ी शांति कही जाती है। तपागच्छ आदि कुछ परम्पराओं में प्रतिक्रमण के अन्त में 'संतिकरं' पाठ भी बोला जाता है। चातुर्मासिक एवं सांवत्सरिक प्रतिक्रमण के उद्देश्य पाक्षिक प्रतिक्रमण के समान ही समझना चाहिए, क्योंकि इन तीनों में मुख्य भेद कायोत्सर्ग, आलोचना तप एवं सम्बुद्धा खामणा की संख्या को लेकर ही है। पाक्षिक आदि प्रतिक्रमण संबंधी विशेष स्पष्टीकरण शंका- जब प्रतिदिन दोनों समय विधि युक्त प्रतिक्रमण करने का विधान है तो फिर पाक्षिक, चातुर्मासिक एवं सांवत्सरिक प्रतिक्रमण की आवश्यकता क्यों? समाधान- इसके समाधान में कहा जा सकता है कि मानव स्वभाव से
SR No.006249
Book TitlePratikraman Ek Rahasyamai Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy