________________
182... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना
पांचवाँ आवश्यक- उसके बाद पूर्वकृत ज्ञानाचार आदि के कायोत्सर्ग से भी अशुद्ध रह गये अतिचारों की एक साथ शुद्धि करने की दृष्टि से तप चिंतवन का कायोत्सर्ग किया जाता है। यदि तप चिंतन की विधि नहीं आती हो तो छ: लोगस्स अथवा चौबीस नवकार मन्त्र गिनने की परम्परा है।
शंका- रात्रिक प्रतिक्रमण के प्रारम्भ में चारित्रादि प्रत्येक आचारों की पृथक्-पृथक् कायोत्सर्ग के द्वारा शुद्धि कर ली गई है फिर छहमासी तप चिंतन का कायोत्सर्ग क्यों?
समाधान- चारित्र आदि में लगे हए सर्व प्रकार के अतिचार जिनकी शद्धि प्रतिक्रमण के द्वारा भी नहीं हुई है उन सकल अतिचारों का युगपद् शोधन करने के लिए यह कायोत्सर्ग किया जाता है।
छठवाँ आवश्यक- इस आवश्यक में लोगस्स सूत्र कहकर मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन, द्वादशावर्त वन्दन और सकल तीर्थ नमस्कार स्तवन बोलकर प्रत्याख्यान किया जाता है। यदि प्रत्याख्यान न आता हो तो उसकी धारणा कर लेनी चाहिए। यह छठे आवश्यक रूप क्रियाएँ हैं।
तत्पश्चात छह आवश्यक पूर्ण होने का हर्ष व्यक्त करने के लिए दैवसिक प्रतिक्रमण के समान 'इच्छामो अणुसटुिं' कहकर बढ़ते हुए अक्षरों वाली स्तुति बोलनी चाहिए।
तपागच्छ आदि परम्पराओं में इस जगह पुरुष वर्ग विशाल लोचन दलं' की तीन गाथा बोलते हैं। खरतर सामाचारी में पुरुष वर्ग 'परसमयतिमिर'का पाठ बोलते हैं तथा बहिनों के द्वारा 'संसारदावा' की तीन स्तुतियाँ कही जाती है।
उक्त स्तुति मन्द स्वर में बोलनी चाहिए, क्योंकि उच्च स्वर में बोलने पर हिंसक जीव-जन्तु उठ जाये और हिंसाजन्य प्रवृत्ति करने लगे तो उस दोष में निमित्त बनते हैं। इसी कारण रात्रिक प्रतिक्रमण मंद स्वर में किया जाता है तथा गुरु द्वारा आदेश आदि भी ऊँचे स्वर में नहीं दिये जाते।
यहाँ 'विशाल लोचन' अथवा 'परसमयतिमिर' आदि की तीन स्तुतियाँ लघु चैत्यवन्दन रूप हैं तथा षडावश्यक की विधि में अंतिम मंगल के रूप में बोली जाती हैं।
इसके अनन्तर प्रभातकाल की मंगल शुरूआत के रूप में चार स्तुतियों से देववन्दन किया जाता है। इसी क्रम में चार खमासमण देकर आचार्य आदि को