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________________ प्रतिक्रमण विधियों के प्रयोजन एवं शंका-समाधान ...165 स्त्रियों के आलापक प्राकृत आदि भाषामय होते हैं। इसी प्रयोजन से साध्वियों और श्राविकाओं को 'नमोऽर्हत्सूत्र' बोलने का अधिकार नहीं है। अत: बहिनों के लिए 'नमोऽस्तु वर्धमानाय' के स्थान पर 'संसारदावानल' की अलग स्तुति कही गई है। छह आवश्यक की समाप्ति के पश्चात क्रमशः बढ़ते हुए अक्षरों वाली स्तुतियाँ बोलने का मुख्य प्रयोजन क्या है? वर्तमान में भगवान महावीर का शासन प्रवर्त्तमान है ऐसे परम तारक अरिहंत प्रभु की आज्ञा पूर्वक छह आवश्यकमय प्रतिक्रमण की पवित्र क्रिया निर्विघ्न पूर्ण हुई, इसलिए प्रमोद भाव से आप्लावित शिष्य उत्तरोत्तर बढ़ते हुए हर्षोल्लास के साथ उच्च स्वर में प्रसन्नता की अभिव्यक्ति एवं मांगलिक रूप में तीन स्तुतियाँ बोलता है। कृतज्ञ पुरुषों का व्यवहार होता है कि कोई भी शुभ कार्य निर्विघ्नतया पूर्ण हो तब देव-गुरु की स्तुति करना। जैसे कोई राजा शत्रु पर विजय प्राप्त कर लौटे अथवा विवाह आदि का प्रसंग हो तो उस समय जनमेदिनी हर्ष से विविध वाजिंत्रों का नाद करती हैं, आनन्दित होकर ऊँचे स्वर से गाते हैं, नृत्य करते हैं, पूज्यजनों की पूजा करते हैं वैसे ही यहाँ हर्ष से उच्च स्वर में वर्धमानस्वामी की स्तुति बोलते हैं। तदनन्तर नमुत्थुणसूत्र बोलकर अनुमति पूर्वक पूर्वाचार्य रचित स्तवन बोला जाता है। यहाँ तपागच्छ आदि कुछ परम्पराएँ 170 तीर्थंकरों की स्तुति रूप 'वरकणय संख' की गाथा बोलते हैं। उसके बाद आचार्य आदि तीन एवं कुछ परम्पराओं में 'भगवानऽहं' आदि के नाम से चार को थोभवंदन किया जाता है। फिर दायें हाथ को चरवला या भूमि पर स्थापित कर 'अड्डाइज्जेसु सूत्र' बोलते हैं। षडावश्यक की पूर्णाहति के अनन्तर की जाने वाली उक्त सभी क्रियाएँ प्रतिक्रमण के पूर्ण होने पर देव-गुरु को वंदन करने के अर्थ में समझनी चाहिए। दिवस सम्बन्धी अतिचारों का विशेष शोधन क्यों? _उपर्युक्त विधि के पश्चात प्रायश्चित्त विशुद्धि के निमित्त चार लोगस्स का कायोत्सर्ग किया जाता है। इसका हेतु यह है कि दो-तीन गाँठ लगाकर बाँधा गया सामान मजबूत रहता है इस न्याय से चारित्राचार की शुद्धि हेतु पूर्व में दो लोगस्स का कायोत्सर्ग करने के उपरान्त भी प्राणातिपात आदि महाव्रतों में लगे हुए अतिचारों की विशुद्धि के लिए पुन: से दैवसिक प्रायश्चित्त का कायोत्सर्ग
SR No.006249
Book TitlePratikraman Ek Rahasyamai Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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