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प्रतिक्रमण विधियों के प्रयोजन एवं शंका समाधान ... 163
कायिक। कायिक विघ्न खमासमण आदि के द्वारा एवं वाचिक विघ्न सूत्रोच्चार के द्वारा दूर हो जाते हैं इसलिए उनका अनुभव नहीं होता लेकिन मानसिक विघ्न, जैसे कि मन का भटकना, राग-द्वेष करना आदि शुभ कार्यों में बाधक बनते रहते हैं जबकि बार-बार मंगल करने से मन की स्थिरता में सहयोग मिलता है।
दूसरा कारण यह कहा जा सकता है कि आलोचना, प्रायश्चित्त एवं प्रतिक्रमण जैसी उत्तम आराधना पंच परमेष्ठी की कृपा से ही प्राप्त हुई है अतः उनके प्रति कृतज्ञता अभिव्यक्त करने हेतु भी बार- बार नमस्कार करते हैं। तीसरा कारण यह माना जाता है कि देव गुरु का स्मरण करने से असंभव कार्य भी संभव हो जाते हैं। । इस तरह नवकार मन्त्र का स्मरण कई प्रयोजनों से किया जाता है।
छठा प्रत्याख्यान आवश्यक- नवकार मन्त्र बोलने के पश्चात छठे आवश्यक रूप प्रत्याख्यान लेने के सूचनार्थ मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन कर द्वादशावर्त्त पूर्वक गुरु को वन्दन करते हैं ।
प्रश्न होता है कि सामायिक लेने के तुरन्त बाद विधिवत प्रत्याख्यान कर लिया जाता है तो फिर पुनः प्रत्याख्यान हेतु मुहपत्ति पडिलेहण क्यों?
इसका जवाब यह है कि पूर्वकृत प्रत्याख्यान को यहाँ स्मृत किया जाता है क्योंकि पांचवाँ कायोत्सर्ग आवश्यक चारित्र आदि गुणों में लगे हुए दोष रूपी घाव को दूर करने हेतु मरहमपट्टी के समान है जबकि प्रत्याख्यान आवश्यक गुणधारण रूप है अर्थात शक्ति रूप दवा के समान है।
प्रत्याख्यान स्वीकार करने से पहले गुरु को वंदन करने का दूसरा हेतु यह है कि जैसे राजा सेवक को किसी कार्य की आज्ञा देता है तब सेवक राजा को प्रणाम करके उस कार्य के लिए प्रस्थान करता है और तदनुसार कार्य पूर्ण होने पर पुनः प्रणाम पूर्वक 'कार्य पूर्ण हो गया है' ऐसा निवेदन करता है वैसे ही प्रतिक्रमण इच्छुक पहला वंदन गुरु आज्ञा को स्वीकार करने के रूप में करता है तथा अंतिम वन्दन कर 'सामायिक, चडवीसत्थो, वन्दन, पडिक्कमण, काउस्सग्ग, पच्चक्खाण कर्यु' ऐसा बोलकर तद्रूप प्रवृत्ति का निवेदन करता है।
यहाँ षडावश्यक सम्बन्धी प्रतिक्रमण की क्रिया पूर्ण होती है।
स्तुति - स्तवन- छह आवश्यक की क्रिया पूर्ण होने के पश्चात शिष्य