SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 116... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना कहें। यहाँ प्रत्येक गुरुदेव के निमित्त पृथक्-पृथक् एक-एक लोगस्स का कायोत्सर्ग भी कर सकते हैं। ___ चैत्यवन्दन एवं शान्ति पाठ- परवर्ती परम्परानुसार गृहस्थ श्रावक बायाँ घुटना ऊँचा कर ‘इच्छाकारेण संदिसह भगवन्! चैत्यवन्दन करूँ? इच्छं' कहकर चउक्कसाय चैत्यवंदन, अर्हन्तोभगवन्त स्तुति, फिर नमुत्थुणं से जयवीयराय तक सूत्र बोलें। फिर सुखासन में बैठकर ‘लघुशांति' कहें। फिर पूर्वोक्त विधि से सामायिक पूर्ण करें। तुलना- यदि वर्तमान प्रचलित दैवसिक प्रतिक्रमण-विधि का आगमिक एवं आगमेतर ग्रन्थों के परिप्रेक्ष्य में तुलनात्मक एवं ऐतिहासिक अध्ययन किया जाए तो कुछ विशेषताएँ निम्न प्रकार स्पष्ट होती हैं जहाँ तक आगम ग्रन्थों का सवाल है वहाँ आवश्यक सूत्र में दैवसिक प्रतिक्रमण के सूत्र पाठों का ही उल्लेख मिलता है। तत्पश्चात उसके टीका साहित्य में उन सूत्रों पर विस्तृत चर्चा की गई है किन्तु वर्तमान प्रचलित विधि का निर्देशन नहीं है। तदनन्तर उत्तराध्ययनसूत्र में इस विधि का संक्षिप्त रूप प्राप्त होता है। तदनुसार दैवसिक प्रतिक्रमणकर्ता ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप सम्बन्धी दैवसिक अतिचारों का अनुक्रम से चिन्तन करें। कायोत्सर्ग पूर्णकर गुरु को वन्दना करें। फिर अनुक्रम से दैवसिक अतिचार की आलोचना करें। प्रतिक्रमण से नि:शल्य होकर गुरु को वन्दन करें। फिर सर्व दु:खों से मुक्त करने वाला कायोत्सर्ग करें।18 जहाँ तक आगमेतर साहित्य का प्रश्न है वहाँ सर्वप्रथम पंचवस्तुक में यह विधि चारित्रातिचार सम्बन्धी कायोत्सर्ग से लेकर मंगल स्तुति (नमोस्तु वर्धमानाय) पर्यन्त कही गई है। इसमें प्रतिक्रमण स्थापना से पूर्व एवं छह आवश्यक पूर्ण होने के बाद की विधि का उल्लेख नहीं है। इसी तरह 'आयरिय उवज्झाय' के पहले वन्दन करने का निर्देश भी नहीं है तथा श्रुतदेवता, क्षेत्रदेवता और भवन देवता का कायोत्सर्ग गीतार्थ आचरणा से करने का निरूपण है।19 तदनन्तर प्रवचनसारोद्धार में यह विधि प्रतिक्रमण स्थापना से लेकर स्तवन तक यथावत देखी जाती है। इससे पूर्व एवं परवर्ती विधि-पाठों का उल्लेख नहीं
SR No.006249
Book TitlePratikraman Ek Rahasyamai Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy