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प्रतिक्रमण की मौलिक विधियाँ एवं तुलनात्मक समीक्षा ...105 इसके पश्चात आचार्य नेमिचन्द्रकृत प्रवचनसारोद्धार में भी प्रतिक्रमण स्थापना से देववन्दन तक की विधि पूर्ववत ही है केवल पूर्ववर्ती एवं परवर्ती चैत्यवंदन तथा आचार्य आदि चार को वन्दन करने का निर्देश नहीं है।
इसी क्रम में श्रीचन्द्राचार्यकृत सुबोधा सामाचारी का उल्लेख किया जा सकता है। इसमें रात्रिक प्रतिक्रमण विधि तीन गाथाओं में निबद्ध है जिसे वर्तमान प्रचलित-विधि के लगभग समरूप कहा जा सकता है। जैसे कि इसमें ईर्यापथ प्रतिक्रमण, कुसुमिणदुसुमिण का कायोत्सर्ग, चैत्यवन्दन, गुरुवन्दन, सज्झाय, सव्वस्सवि आदि से.... देववंदन तक का निरूपण है।
__ इसमें अन्तर्गत क्रियाओं एवं सूत्र विशेषों का निर्देश न होते हुए भी अद्य प्रवर्तित प्रतिक्रमण-विधि का सामान्य स्वरूप स्पष्ट हो जाता है। इससे परवर्ती तिलकाचार्य सामाचारी में यह विधि सुबोधा सामाचारी के अनुरूप ही कही गई है, उपरान्त कुछ विशेषताएँ निम्न हैं1. प्रतिक्रमण की स्थापना करते समय यदि श्रावकवर्ग भी साथ हो तो 'श्रावकों
को वन्दूं' ऐसा कहना चाहिए। यह उल्लेख सर्वप्रथम इसी सामाचारी ग्रन्थ __ में देखा जाता है। कुछ परम्पराओं में आज भी यह वाक्य बोलते हैं। 2. इसमें कुसुमिण दुसुमिण का कायोत्सर्ग चैत्यवन्दन के पश्चात करने का
निर्देश है। वर्तमान की कुछ परम्पराओं में यह कायोत्सर्ग पहले भी किया जाता है। अपनी-अपनी सामाचारी के अनुसार दोनों विधियाँ युक्त है।
तदनन्तर जिनप्रभसूरिकृत विधिमार्गप्रपा में आचार्य आदि चार को वन्दन करने से लेकर पुन: अन्तिम में चार को वन्दन करने तक की विधि कही गई है जो यथावत रूप से वर्तमान परम्परा में भी प्रचलित है।
प्रतिक्रमण की स्थापना करने से पूर्व आचार्यादि चार को वन्दन करने का उल्लेख सर्वप्रथम इसी ग्रन्थ में प्राप्त होता है। इससे पूर्ववर्ती योगशास्त्र आदि में प्रतिक्रमण स्थापना का ही निर्देश है।
इसके बाद आचार्य वर्धमानसूरिकृत आचार दिनकर में रात्रिक प्रतिक्रमण की विधि, विधिमार्गप्रपा के समान ही कही गई है। कुछ विशेषताएँ इस प्रकार है1. प्रतिक्रमण से पूर्व कुःस्वप्न-दुःस्वप्न सम्बन्धी दोषों की निवृत्ति के लिए
कायोत्सर्ग करने का उल्लेख सामाचारी ग्रन्थों के बाद इसी में देखा जाता है।