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प्रतिक्रमण की मौलिक विधियाँ एवं तुलनात्मक समीक्षा ...103 • उसके बाद (साधुविधिप्रकाश के अनुसार ‘जाइं जिण बिंबाइं ताई सव्वाइं वंदामि' इतना कह) 'इच्छकार भगवन्! पसाय करी पच्चक्खाण करावो जी' ऐसा बोलकर मनोनिर्धारित प्रत्याख्यान गुरु के मुख से या स्थापनाचार्य के समक्ष स्वयं करें।
• तदनन्तर शिष्य ‘इच्छामो अणुसह्रि' कहकर चैत्यवन्दन मुद्रा में बैठ जायें। फिर गुरु के द्वारा 'नमोऽर्हत्' पूर्वक ‘परसमयतिमिर तरणिम्' पाठ की एक स्तुति कह दी जाए उसके पश्चात सभी शिष्य 'नमो खमासमणाणं' इस वाक्य पद पूर्वक ‘परसमयतिमिरतरणिम्' पाठ की तीनों गाथाएँ बोलें। वर्तमान में यह स्तुति गुरु और शिष्य दोनों के द्वारा एक साथ भी बोली जाती है। यहाँ स्त्रियों के लिए 'संसारदावानल' स्तुति बोलने की परम्परा है।
• तत्पश्चात बायाँ घुटना ऊँचा कर नमुत्थुणंसूत्र कहे। फिर खड़े होकर चार स्तुतियों से देववन्दन करें। पुन: नमुत्थुणसूत्र बोलकर तीन खमासमण के द्वारा क्रमश: आचार्य, उपाध्याय एवं सर्व साधुओं को वन्दन करें।
यहाँ रात्रिक प्रतिक्रमण विधि समाप्त हो जाती है। परवर्ती काल में सम्मिलित की गई विधि
पूर्वोक्त विधि करने के पश्चात यदि स्थिरता हो तो मंगल के लिए उत्तर दिशा या ईशान कोण की तरफ मुख करके तीन खमासमण देकर कहे- 'इच्छा. संदि. भगवन्! सीमंधर स्वामी आराधनार्थं चैत्यवन्दन करूँ? इच्छं' कहकर सीमंधर स्वामी का चैत्यवन्दन करें। तदनन्तर जं किंचि., नमुत्थुणं., जावंति चेइआई., जावंत केविसाहू., नमोऽर्हत्., स्तवन, जयवीयराय., अरिहंत चेइयाणं., अन्नत्थसूत्र कहकर एक नवकार मन्त्र का कायोत्सर्ग करें। पूर्णकर 'नमोऽर्हत्' पूर्वक सीमंधर स्वामी की स्तुति कहें। इसी तरह तीन खमासमण पूर्वक सिद्धाचलजी का चैत्यवन्दन करें। इसमें सिद्धाचल का स्तवन और स्तुति कहें।
• उक्त दोनों चैत्यवन्दन प्रात:कालीन प्रतिक्रमण का मुख्य भाग नहीं है किन्तु प्रचलित परम्परा में इन्हें आवश्यक मान लिया गया है। जीत व्यवहार के अनुसार दोनों चैत्यवन्दन करना चाहिए। कुछ आराधक ज्ञानपद, सम्मेत शिखर तीर्थ, सिद्धचक्र आदि की आराधना निमित्त भी चैत्यवंदन करते हैं।