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72... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना पहले पूछा था तब ध्यानस्थ मुनि शत्रु के साथ मानसिक युद्ध कर रहे थे और बाद में भूलों के पश्चात्ताप पूर्वक अशुभ मन को शुभ योग में लगाने से इस प्रतिक्रमण का फल केवलज्ञान तक पहुँच गया।
आशय है कि मिथ्यात्व आदि में से एक-एक का प्रतिक्रमण करने वाली आत्माओं का भी जीवन सफल हो गया, तब जो पाँचों प्रकार के प्रतिक्रमण की सम्यक् साधना कर लेता है उसका जीवन निःसन्देह धन्य एवं सार्थक होगा ही। मिच्छामि दुक्कडं : एक विमर्श
जिन शासन में 'मिच्छामि दुक्कडं' का आदरणीय स्थान है। यह शास्त्र वचन जन सामान्य में अत्यन्त प्रसिद्ध है। इस सम्बन्ध में लोगों की भिन्न-भिन्न धारणाएँ हैं। कुछ सोचते हैं कि 'मिच्छा मि दुक्कडं' के उच्चारण मात्र से किये गये पाप विनष्ट हो जाते हैं अतः प्रतिक्रमण आदि अन्य क्रियाएँ करना आवश्यक नहीं है। कुछ मानते हैं कि 'मिच्छामि दुक्कडं' जैनाचार का सार है। कुछ कहते हैं कि 'मिच्छा मि दुक्कडं' आत्मशुद्धि का सर्वोपरि मंत्र है इसलिए जब भी किसी प्रकार का अपराध हो या व्रत आदि खंडित हो, तो 'मिच्छामि दुक्कडं' कह देना चाहिए।
'मिच्छामि दुक्कडं' अपराधों की स्वीकृति एवं कृतदोषों को पुनः पुन: न दुहराने का बीज सूत्र है इसीलिए यह प्रतिक्रमण रूप प्रायश्चित्त का मुख्य अंग है।
जहाँ तक यह प्रश्न है कि 'मिच्छामि दुक्कडं' कहने मात्र से पूर्वबद्ध कर्म निर्जरित हो जाते हैं तो ऐसी बात नहीं है। इसका समाधान पाने के लिए यह निश्चित रूप से ज्ञातव्य है कि शब्द जड़ है, पुद्गल का एक भेद है, चैतन्य नहीं। शब्द जड़ रूप होने के कारण उसमें स्वयं में किसी को पवित्र या अपवित्र करने की शक्ति नहीं है। परन्तु शब्द के पीछे रहा हआ मन का भाव ही सबसे बडी शक्ति है। वाणी को मन का प्रतीक कहा जा सकता है। अतएव ‘मिच्छा मि दुक्कडं' इस वाक्य के पीछे जो आन्तरिक पश्चात्ताप का भाव रहा हुआ है, उसी में अचिन्त्य शक्ति निहित है। यदि साधक सच्चे मन से पश्चात्ताप करें, पापाचार के प्रति घृणा व्यक्त करें, तो वह कलुषित मन को सहज ही धोकर साफ कर सकता है, आत्मा पर लगे हुए पाप-मल को बहाकर साफ कर सकता है। अपराध के लिए किया जाने वाला तपश्चरण या अन्य किसी तरह का दण्ड भी