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सम्पादकीय
श्रमणाचार की प्ररूपणा करते हुए जैन आगम ग्रन्थों में षडावश्यक को आवश्यक कर्त्तव्य की संज्ञा दी गई है। षडावश्यकों में चतुर्थ स्थान प्रतिक्रमण आवश्यक का है। आज यद्यपि षडावश्यक प्रतिक्रमण के नाम से ही रूढ़ हो गया है परंतु वस्तुतः प्रतिक्रमण आवश्यक का एक स्वतंत्र अंग है तथा आत्म शोधन एवं दोष विघटन का जीवंत साधन है। ___ जैन वाङ्गमय के अनुसार संयम साधना में प्रमाद या विस्मृति वश किसी प्रकार की स्खलना हो जाए अथवा व्रत आदि का अतिक्रमण हो जाए तो उनकी निंदा एवं आलोचना करना प्रतिक्रमण कहलाता है। प्रतिक्रमण का मूलार्थ है वापस लौट जाना या पीछे हटना।
__ जैनाचार्यों के अनुसार विभाव दशा में गई हुई आत्मा का अपने स्वभाव में लौट आना ही वास्तविक प्रतिक्रमण है। गहराई से सोचा जाए तो प्रतिक्रमण केवल पाप प्रवृत्ति से पीछे लौटना भी नहीं है अपितु पुन: उस गलती को न दोहराने की संकल्पना भी है। प्रतिक्रमण करते समय प्रत्येक पापवृत्ति के साथ 'तस्स मिच्छामि दुक्कडम्' पद बोला जाता है। सामान्यतया इसका अर्थ होता है- मेरा दुष्कृत् मिथ्या हो'। यह एक तरह का माफीनामा है किन्तु मेरी दृष्टि में इसका वास्तविक अभिप्राय है गलती को गलती रूप में स्वीकार करना और उसकी पुनरावृत्ति न करना।
साधना की संसिद्धि के लिए अपने स्वभाव में लौटना आवश्यक है। इसी कारण प्रतिक्रमण सभी के लिए नितान्त आवश्यक माना गया है।
__ भगवान महावीर से पूर्व काल तक अपराध या गलती होने पर ही प्रतिक्रमण करने का विधान था परंतु दुषम काल के प्रभाव को देखते हुए प्रभु महावीर ने इस नियम को कठोर बनाया और कहा- अपराध न हो तो भी प्रत्येक साधक को उभय संध्याओं में प्रतिक्रमण अवश्य करना चाहिए, क्योंकि साधकों के लिए यह अनिवार्य है। इसी मार्ग पर गमन करके आत्मशुद्धि की प्रक्रिया को पूर्णता की ओर अग्रसर किया जा सकता है।