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________________ प्रतिक्रमण के गूढ़ रहस्यों का विविध पक्षीय अनुसंधान ...43 वंदन-नमस्कार कर सकता है अतएव चतुर्विंशतिस्तव के बाद वंदना आवश्यक को स्थान दिया गया है। वंदना आवश्यक के पश्चात प्रतिक्रमण को रखने का आशय यह है कि जो राग-द्वेष रहित समभावों से गुरु की स्तुति करने वाले हैं, वे भव्य जीव ही गुरु साक्षी से अपने पापों की आलोचना कर सकते हैं। जो गुरु को वंदन ही नहीं करेगा, वह गुरु के प्रति बहुमान कैसे रखेगा और अपना हृदय स्पष्टतया खोलकर कृत पापों की आलोचना कैसे करेगा? जो पाप मन से. वचन से और काया से स्वयं किये जाते हैं, दूसरों से करवाये जाते हैं और दूसरों के द्वारा किए हुए पापों का अनुमोदन किया जाता है उन सब पापों की निवृत्ति के लिए कृत पापों की आलोचना करना, निन्दा करना प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण करने से आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में आती है। प्रतिक्रमण के द्वारा व्रतों के अतिचार रूपी छिद्रों को बंद कर देने वाला तथा पश्चात्ताप के द्वारा पाप कर्मों की निवृत्ति करने वाला साधक ही कायोत्सर्ग की योग्यता प्राप्त कर सकता है। जब तक प्रतिक्रमण के द्वारा पापों की आलोचना करके चित्त शुद्धि न की जाए, तब तक धर्मध्यान या शुक्लध्यान के लिए एकाग्रता संपादन करने का कार्य सिद्ध नहीं हो सकता। अनाभोग आदि से लगने वाले अतिचारों की अपेक्षा अविवेक, असावधानी आदि से लगने वाले बड़े अतिचारों की शुद्धि कायोत्सर्ग द्वारा होती है इसीलिए कायोत्सर्ग को पांचवाँ स्थान दिया गया है। __अविवेक आदि से लगने वाले अतिचारों की अपेक्षा जानते हुए अहंकार आदि से लगे बड़े अतिचारों की शुद्धि प्रत्याख्यान करता है अतः प्रत्याख्यान को छठवाँ स्थान दिया गया है। स्पष्ट रूप से कहा जाए तो प्रतिक्रमण और कायोत्सर्ग के द्वारा कृत अतिचार की शुद्धि हो जाने पर भी प्रत्याख्यान द्वारा तप रूप नया लाभ होता है। जो साधक कायोत्सर्ग द्वारा विशेष चित्त शुद्धि, एकाग्रता और आत्म बल प्राप्त करता है वह प्रत्याख्यान का सच्चा अधिकारी है यानी प्रत्याख्यान के लिए विशिष्ट चित्तशुद्धि और विशेष उत्साह की अपेक्षा है, जो कायोत्सर्ग के बिना सम्भव नहीं है। अत: कायोत्सर्ग के पश्चात प्रत्याख्यान को स्थान दिया गया है। प्रत्याख्यान के द्वारा साधक मन, वचन, काया को दुष्ट प्रवृत्तियों से रोककर शुभ प्रवृत्तियों पर केन्द्रित करता है। ऐसा करने से इच्छा निरोध, तृष्णा का
SR No.006249
Book TitlePratikraman Ek Rahasyamai Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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