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आवश्यक का स्वरूप एवं उसके भेद ...27 शताब्दी का प्रथम चरण माना जा सकता है। इसका हेतु यह है कि इस अवसर्पिणी काल के अन्तिम श्रुतधर आचार्य भद्रबाहु स्वामी का अवसानकाल ईस्वी सन् से पूर्व तीन सौ छप्पन वर्ष के लगभग स्वीकारा जाता है, उन्होंने आवश्यक सूत्र पर सबसे पहली व्याख्या लिखी है, जो आवश्यक नियुक्ति के नाम से प्रसिद्ध है। इस स्थिति में आवश्यक सूत्र उनसे पूर्ववर्ती या उनके समकालीन किसी श्रुतधर आचार्य रचित होना चाहिए। इसका काल ईस्वी पूर्व पाँचवीं शती से लेकर चौथी शती के प्रथम चरण तक का सिद्ध होता है।
आवश्यकनियुक्ति के आधार पर दूसरा अभिमत यह भी प्रस्तुत किया गया है कि नमस्कार मंत्र जितना प्राचीन है आवश्यक सत्र भी उतना ही पुराना होना चाहिए, क्योंकि आवश्यक नियुक्ति में नमस्कार मंत्र के पाँचों पदों की लगभग 139 गाथाओं में विस्तृत व्याख्या है। इससे पूर्ववर्ती किसी ग्रन्थ में नमस्कार मंत्र पर इतना विस्तृत वर्णन किया गया हो, ज्ञात नहीं है।
आवश्यक नियुक्ति की 645वीं गाथा में पंच परमेष्ठी के नमस्कार पूर्वक सामायिक करने का निर्देश है। समणी कसमप्रज्ञा जी ने इस गाथा का यह फलित निकाला है कि नमस्कार मंत्र इतना ही पुराना होना चाहिए, जितना सामायिक सूत्र या आवश्यक सूत्र। लेकिन उनके मतानुसार यह गाथा मूल नियुक्ति की न होकर भाष्यकार की होनी चाहिए, क्योंकि चूर्णि में इसकी कोई व्याख्या नहीं है तथा न टीकाकारों ने इस गाथा का संकेत किया है।81
उपर्युक्त द्विविध अभिमतों पर निष्पक्ष दृष्टि से विचार किया जाए तो पंडित सुखलालजी की अवधारणा अधिक उचित प्रतीत होती है। यद्यपि पूर्वाचार्यों द्वारा आवश्यक सूत्र की गणना अंगबाह्य श्रुत के अन्तर्गत क्यों की गई तथा उसे गणधर रचित स्वीकार क्यों नहीं किया गया? ये दोनों बातें बुद्धि ग्राह्य नहीं है। इसका कारण यह है कि प्रथम तो महावीर का धर्म सप्रतिक्रमण धर्म कहा गया है, यदि प्रतिक्रमण सत्र नहीं थे तो फिर प्रतिक्रमण कैसे किया जाता था? दूसरा, गणधर रचित श्रुत सर्वग्राह्य होने के साथ-साथ श्रद्धेय और पूजनीय होते हैं। समाहार रूप में कहा जा सकता है कि आवश्यक आत्मशुद्धिकरण की महत्त्वपूर्ण नित्यक्रिया है तथा उसमें उत्कृष्टता भी परमावश्यक है। इसी के साथ महावीर के शासन में उसकी नित्यता देखते हुए उसके मूल सूत्र गणधर रचित होने चाहिए।