________________
384...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में दार्शनिकों का अनुभूत सत्य कहता है कि दुष्प्रवृत्ति से विरत होने के लिए केवल उसे नहीं करना, इतना ही पर्याप्त नहीं है वरन् उसके नहीं करने का आत्म-निश्चय भी आवश्यक है। जैन सिद्धान्त के अनुसार दुराचरण नहीं करने वाला व्यक्ति भी जब तक दुराचरण त्याग की प्रतिज्ञा नहीं लेता, तब तक दुराचरण के दोष से मुक्त नहीं हैं। मात्र परिस्थितिगत विवशताओं के कारण जो दुराचार में प्रवृत्त नहीं है वह भी दुराचरण के दोष से मुक्त नहीं हैं। जैसे बन्दीगृह में रहा हुआ चोर चौर्यकर्म से निवृत्त होता हुआ भी उसके दोष से मुक्त नहीं होता, क्योंकि उसकी मनोवृत्ति चौर्यकर्म से युक्त है। प्रत्याख्यान, दुराचार से निवृत्त होने के लिए किया जाने वाला दृढ़ संकल्प है। इस संकल्प का तद्रूप आचरण करने से इहलोक में आत्म शान्ति और परलोक में शाश्वत सुख की प्राप्ति होती है।
उत्तराध्ययनसूत्र में प्रत्याख्यान की महिमा का संगान करते हुए नवविध प्रत्याख्यान का फल बताया गया है
__1. संभोग प्रत्याख्यान- मुनि के द्वारा लाए गए आहार को मण्डली स्थान में या मण्डलीबद्ध बैठकर नहीं खाने का संकल्प करना संभोग प्रत्याख्यान है। सम्भोग प्रत्याख्यान से आलम्बनों का क्षय होकर निरवलम्ब साधक के मनवचन-काया के योगों का निरोध हो जाता है। फिर वह स्वयं के द्वारा उपार्जित लाभ से ही सन्तुष्ट रहता है, दूसरों के लाभ की कल्पना भी नहीं करता।119
2. उपधि प्रत्याख्यान- आत्म साधना में सहयोगभूत वस्त्र आदि उपकरणों का त्याग करना उपधि प्रत्याख्यान है। उपधि के प्रत्याख्यान से स्वाध्याय, ध्यान आदि में विघ्न उपस्थित नहीं होता तथा आकांक्षा से रहित होने के कारण वस्त्र आदि मांगने की और उनकी रक्षा करने की चिन्ता न होने से मन में संक्लेश भी नहीं होता।120
3. आहार प्रत्याख्यान- अल्पकाल या दीर्घकाल के लिए त्रिविध या चतुर्विध आहार का त्याग करना आहार प्रत्याख्यान है। आहार का परित्याग करने से जीवन के प्रति ममत्व नहीं रहता। निर्ममत्व होने से आहार के अभाव में भी उसे किसी प्रकार के कष्ट की अनुभूति नहीं होती।121
4. कषाय-प्रत्याख्यान- क्रोध, मान, माया व लोभ वृत्ति को न्यून करना या समाप्ति हेतु प्रयत्नशील रहना कषाय प्रत्याख्यान है। कषाय के प्रत्याख्यान से वीतराग भाव प्राप्त होता है। वीतराग भाव को प्राप्त जीव सुख-दु:ख में सम परिणामी हो जाता है।122