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________________ प्रत्याख्यान आवश्यक का शास्त्रीय अनुचिन्तन ... 383 विशिष्ट प्रकार के चारित्र का निर्माण कर आत्मा को परम पद तक पहुँचा सकता है।116 प्रस्तुत वर्णन में प्रत्याख्यान का जो प्रयोजन बतलाया गया है उसका अभिप्राय बहिर्मुख चेतना को संयम धर्म में जोड़ देना है। प्रश्न होता है आत्मा को संयममार्ग में कैसे प्रवृत्त करें ? तृष्णा अनंत है और उसकी सम्पूर्ति करना अत्यन्त शक्ति सम्पन्न देवता के अधीन भी नहीं है । याचक रूपये दो रुपये की आशा रखता है, रुपया- दो रुपया वाला पाँच-पचीस की आशा रखता है, पाँचपचीस वाला हजार-दो हजार की, लखपति अरबपति होने की, राजा के वासुदेव संपत्ति की, और वासुदेव चक्रवर्ती के ऋद्धि की वांछा करता है। उत्तराध्ययनसूत्र के आठवें अध्ययन में कहा गया है कि जैसे लाभ होता जाता है वैसे लोभ बढ़ता जाता है, लाभ से लोभ का अभिवर्द्धन होता है। दो मासा सुवर्ण की इच्छा करने वाला मन करोड़ों सुवर्ण से भी तृप्त न हुआ । 117 तात्पर्य है कि कपिल ब्राह्मण दो मासा सुवर्ण की इच्छा से राजा के समीप गया, परन्तु राजा के द्वारा जब इच्छा के अनुसार याचना करने का कहा गया तो उसका लोभ बढ़ता गया और संपूर्ण राज्य मांगने के लिए तत्पर हो गया । अन्तत: सन्मति प्रकट हुई और तृष्णा का तार टूटते ही सचेत हो गया। साथ ही 'संतोष जैसा सुख नहीं' इस मान्यता में स्थिर होकर शाश्वत सुख को प्राप्त कर लिया। कहना यह है कि अनंत तृष्णा का तार विचारमात्र से तोड़ देना असंभव है । विशेषावश्यकभाष्य में कहा गया है कि जैसे मार्ग को जानने वाला पुरुष गमनादि - चेष्टा रहित होने से इष्ट स्थल पर नहीं पहुँच सकता है अथवा इष्ट दिशा की ओर ले जाने वाली वायु न बहती हो तो वाहन इच्छित स्थल पर नहीं पहुँचा सकता है वैसे ही चारित्र रूपी सत्क्रिया रहित ज्ञान भी शाश्वत सुख का कारण नहीं बन सकता है, मोक्षरूप इच्छित अर्थ की प्राप्ति नहीं करवा सकता है । 118 अतः सम्यक्ज्ञान के साथ कुशल क्रिया की भी आवश्यकता है। जिस क्रिया के माध्यम से स्वच्छन्दवृत्ति का निरोध होता है और आत्मा सदाचार में प्रवर्त्तन करती है वह कुशल क्रिया कहलाती है, क्योंकि इस क्रिया का फल मुक्ति, मोक्ष, शिव सुख, परमानंद या परमपद की प्राप्ति है और वह क्रिया अर्हत्प्ररूपित प्रत्याख्यान है । प्रत्याख्यान ही कुशल क्रिया है । प्रत्याख्यान आवश्यक की उपादेयता प्रत्याख्यान, त्याग के क्षेत्र में ली गयी प्रतिज्ञा या आत्मनिश्चय है। जैन
SR No.006248
Book TitleShadavashyak Ki Upadeyta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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