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376...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में
वर्जन पूर्वक होता है, परन्तु एकाशन आदि व्रतों में चउविहार का प्रत्याख्यान होता है।
ज्ञातव्य है कि एकाशन, नीवि, आदि प्रत्याख्यानों में जहाँ-जहाँ दुविहार का उल्लेख किया है वह मुनि के लिए विशेष स्थितियों में ही जानना चाहिए, परन्त गृहस्थ को भी कारण विशेष में ही दुविहार का प्रत्याख्यान करना चाहिए। सामान्य नियम से तो तिविहार या चउविहार का प्रत्याख्यान करना चाहिए। प्रत्याख्यान व्रत सम्बन्धी वर्जनीय दलीलें
- तीर्थंकर प्रणीत प्रत्याख्यान-धर्म सभी कालों में पालन करने योग्य है। जैन धर्म और मनुष्य भव की प्राप्ति का सर्वोत्कृष्ट फल प्रत्याख्यान का आचरण है। प्रत्याख्यान का परिपालन करने से ही परमानन्द (मोक्ष) की प्राप्ति होती है। कदाच वीर्यान्तराय कर्म के प्रबल उदय से अथवा अप्रत्याख्यानी कषाय मोहनीय कर्म के प्रबल उदय के कारण उस तरह के भाव उत्पन्न न होने से, प्रत्याख्यान नहीं भी ग्रहण कर सकें, तो भी भाव पूर्वक इस प्रकार की सम्यक् श्रद्धा अवश्य करनी चाहिए कि 'प्रत्याख्यान धर्म मोक्ष का परम अंग है तथा जब तक प्रत्याख्यान धर्म की प्राप्ति न हो तब तक आत्मा को मुक्त दशा की उपलब्धि नहीं हो सकती।'
प्रत्याख्यान के सम्बन्ध में रुचि न रखने वाले कुछ लोग उत्सूत्र प्ररूपणा (जिनमत के विपरीत कथन) करते हुए कहते हैं1. संकल्प मात्र से धारण कर लेना ही प्रत्याख्यान है, बद्धाञ्जलि युक्त होकर
प्रतिज्ञा पाठ ग्रहण करने से क्या विशेष होता है? 2. मरूदेवी माता ने कौन सा प्रत्याख्यान किया था? शुभ भावना भाने मात्र
से मोक्ष पद को उपलब्ध कर लिया अत: भावना उत्तम है, द्रव्य से
प्रत्याख्यान ग्रहण की कोई आवश्यकता नहीं है। 3. भरत चक्रवर्ती ने षट्खंड के राज्य का भोग करते हुए एवं व्रत-नियम का
पालन न करते हुए भी शुभ भाव मात्र से केवलज्ञान को प्राप्त किया। 4. श्रेणिक महाराजा जैसे जीव ने नवकारसी प्रत्याख्यान न कर सकने के
बावजूद भी परमात्मा महावीर के प्रति निर्मल प्रेम रखने मात्र से तीर्थंकर गोत्र (पुण्य प्रकृति) का बंधन कर लिया, तब प्रत्याख्यान से विशेष क्या होता है?