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374...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में वरणा का मूल-पित्तनाशक 9. उपलेप की लकड़ी- वायुहर एवं वमन शामक 10. करेण की जड़- शिरो वेदना शामक 11. करीआतु- अरुचिनिवारक 12. कस्तूरी- वायु, प्यास, वमन आदि का नाशक 13. कडु- पाचक एवं ज्वरनाशक 14. कुंआर- अजीर्ण निवारण 15. केसर- कंठरोग, मस्तक शूल एवं वमन उपशामक 16. कुंदरू- कफ नाशक 17. कत्था- शीतल कारक 18. केरडा का मूल- रुचिकारक एवं शूल नाशक 19. खार- उदर पीड़ा निवारक 20. गुगल-वातघ्न एवं सूजन दूर करने वाला 21. गलो- दाह आदि नाशक 22. गोमूत्र- उदर रोग नाशक एवं चर्म हितकारी 23. चीड़-मूत्रशोधक, वायुहर और पाचक 24. चूना- शीतल व अजीर्ण में हितकर 25. चोपचीनीतृषाहर, पौष्टिक और वातोपशामक 26. जहरी गुठली- ज्वर नाशक 27. डाभ का मूल- रक्त स्तंभक व तृप्ति कारक 28. तमाकू- स्नायु की शिथिलता और हिस्टीरिया शम करने वाला 29. त्रिफला- सारक, पित्त शामक एवं घबराहट दूर करने वाला 30. थोहर का मूल- नींद नाशक 31. दाडिम का छिलका- खांसी, कफ और पित्त को शमन करने वाला 31. पान की जड़- वातहर एवं प्रमाद दूर करने वाला 32. बहेड़ा का छिलका- खांसी और कफ नाशक 33. बबूल का छिलका 34. मजीठ-शूल, रक्त अतिसार और पित्त शामक 35. मूलहटी- खांसी
दूर करने वाली 36. राख- दंतशोधक 37. रोहिनी का छिलका 38. नीम का पंचाग 39. चन्दन 40. हलदी 41. हरड़े 42. हरड़े का छिलका 43. हीरा बोल 44. फटकड़ी 45. साजीखार आदि। इस तरह संख्या में 75 से अधिक वस्तुएँ अणाहारी है।103
अणाहारी का शाब्दिक अर्थ है- जो आहार योग्य नहीं है और क्षुधा तृप्ति के योग्य भी नहीं है, केवल रोगादि उपशमन के लिए उपयोग में ली जाती हो। जैन परम्परा में लम्बी तपस्या के दिनों में ताकत आदि के लिए अणाहारी वस्तुओं के सेवन की प्रवृत्ति है। सामान्यतया रोग निदान करने के पश्चात इन अणाहारी वस्तुओं का आवश्यकतानुसार उपयोग करने पर अभक्ष्य दवाईयों से बचा जा सकता है और गृहीत नियमादि का निराबाध पालन भी हो सकता है, परन्तु इन वस्तुओं का उपयोग करने से पूर्व गीतार्थ गरू की अनुमति लेना आवश्यक है। अणाहारी वस्तु पानी के साथ नहीं लेनी चाहिए अथवा उसका स्वाद मुख में हो वहाँ तक पानी नहीं पीना चाहिए, अन्यथा आहार रूप में गिनी