SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 428
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 370... षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में दिनभर में होने वाली भूलों या दोषों का चिंतन कर पुनः न दुहराने का संकल्प करना एवं अशुभयोग से शुभयोग में प्रवृत्त होना प्रतिक्रमण है तथा रागजन्यय- तृष्णाजन्य मनोवृत्ति को नियंत्रित करने हेतु व्रत, नियम या प्रतिज्ञा स्वीकार करना अथवा मर्यादा पूर्वक अशुभ योग से निवृत्ति और शुभयोग में प्रवृत्ति करना प्रत्याख्यान है । प्रतिक्रमण भूतकालीन दोषों की शुद्धि करता है और प्रत्याख्यान भविष्यकालीन पापों से सुरक्षा करता है। इस प्रकार प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान अर्थतः भिन्न-भिन्न हैं, किन्तु इन दोनों के संयोजन से, आचरण से पाप निवर्त्तन होता है। केवल प्रतिक्रमण या केवल प्रत्याख्यान करने मात्र से पाप कर्मों का क्षय एवं पापास्रवों का निरोध नहीं होता, पापमुक्ति एवं आत्मशुद्धि के लिए दोनों का साहचर्य आवश्यक है। गवेषणात्मक पहलू से विचार किया जाए तो उक्त दोनों के सह सम्बन्ध को उजागर करने वाले कुछ तथ्य इस प्रकार सामने आते हैं1. मोक्षप्राप्ति में हेतुभूत- उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान- इन उभय क्रियाओं से आस्रव द्वारों का निरोध होता है । ये दोनों आस्रवद्वार के पापमार्गों का अवरोध कर आत्मा को संवरमय बनाते हैं। संवर निर्जरा का हेतु भी है। संवर और निर्जरा दोनों की सम्पन्नता से यह जीव मोक्षमार्ग की ओर अग्रसर होता है | 93 2. मोक्षसिद्धि में हेतुभूत- प्रतिक्रमण संवर रूप है और प्रत्याख्यान तप एवं निर्जरा रूप है। आचार्य उमास्वाति, चूर्णिकार जिनदासगणी आदि ने कहा है- 'इच्छानिरोधस्तप:' इच्छाओं का निरोध करना तप है। प्रत्याख्यान से तप साधना होती है। इस प्रकार प्रतिक्रमण द्वारा संवर (नवीन कर्मों पर रोक ) और प्रत्याख्यान तप द्वारा पूर्वकृत कर्मों की निर्जरा करता हुआ साधक मोक्ष सिद्धि करता है। उत्तराध्ययन में इन दोनों के साहचर्य को आवश्यक बतलाते हुए कहा गया है कि जैसे तालाब को रिक्त करने के लिए पानी आने का मार्ग बन्द करना तथा एकत्रित पानी को निकालना आवश्यक है उसी प्रकार नवीन पाप कर्मों को रोकने एवं चिरसंचित पाप कर्मों का क्षय करने के लिए क्रमशः संवर और निर्जरा प्रधान क्रियाएँ करना आवश्यक है | 94 3. प्रत्याख्यान की सार्थकता में हेतुभूत- प्रतिक्रमण करने से ही प्रत्याख्यान सार्थक बनता है । प्रतिक्रमण करते हुए साधक यह चिंतन करता है
SR No.006248
Book TitleShadavashyak Ki Upadeyta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy