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प्रत्याख्यान आवश्यक का शास्त्रीय अनुचिन्तन ... 367
यदि उत्तरगुणों के सन्दर्भ में प्रतिपादन करना हो, तो भी सर्वप्रथम षाण्मासिक तप की चर्चा करें, फिर जो जिसके योग्य हो, उस तप का वर्णन करना चाहिए। 87
अनागत आदि प्रत्याख्यानों का प्रतिपादन आगम कथित अर्थ के अनुसार करना चाहिए। जहाँ दृष्टान्त अपेक्षित हो, वहाँ दृष्टान्त का प्रयोग करना चाहिए। ऐसा करने से प्रतिपादन विधि की आराधना होती है, अन्यथा विराधना होती है। 88
प्रत्याख्यान पालन की विधि
प्रत्याख्यान आत्म विशुद्धि का स्थान है, बशर्ते स्वीकृत प्रत्याख्यान का यथाविधि परिपालन किया जाये। आवश्यकनिर्युक्ति, आवश्यकचूर्णि आदि में गृहीत प्रत्याख्यान के निर्वहन का क्रम इस प्रकार बतलाया गया है
1. स्पृष्ट- अशुद्ध अध्यवसायों का परिहार करते हुए गृहीत नियम का अखंड पालन करना तथा प्रत्याख्यान को विधिपूर्वक उचित काल में ग्रहण करना, स्पृष्ट शुद्धि है। 2. पालित - अवधारित प्रत्याख्यान का प्रयोजन बार-बार ध्यान में रखना एवं तदनुरूप अनुवर्त्तन करना अथवा उसके प्रति बार - बार जागृत रहना,पालित शुद्धि है । 3. शोभित - स्वयं के निमित्त लाया गया आहार पहले गुरु आदि को देना, फिर शेष बचा हुआ स्वयं उपभोग करना अथवा गुरु आदि की भक्ति करने के परिणाम से आहार- पानी लाना। इससे प्रत्याख्यान शोभित होता है। 4. पारित - प्रत्याख्यान की अवधि पूर्ण होते ही भोजन आदि कर लेना। 5. तीरित - प्रत्याख्यान की अवधि पूर्ण हो जाने पर भी धैर्य रखते हुए मुहूर्तमात्र के पश्चात आहार करना। 6. कीर्तित- भोजन करते समय- 'मैंने यह प्रत्याख्यान किया था, अब वह पूर्ण हो गया है'- इस प्रकार उच्चारण करता हुआ भोजन करें। चूर्णिकार के मत से मौनपूर्वक बिना कुछ कहे भोजन करता है तो वह ‘कीर्तित' नहीं कहलाता है। 7. आराधित- उपर्युक्त सभी शुद्धियों से युक्त प्रत्याख्यान करना आराधित है। 8. अनुपालित- तीर्थंकर पुरुषों के वचनों का बार-बार स्मरण करते हुए प्रत्याख्यान का पालन करना। 89
जो प्रत्याख्यान स्पर्शन आदि गुणों से युक्त होता है, वह सुप्रत्याख्यान कहलाता है। अत: प्रत्येक मुमुक्षु को लघु हो या बृहद्- सभी तरह के नियमव्रतों का उक्त क्रम से अनुपालन करना चाहिए । विशेष है कि आवश्यकनिर्युक्ति,