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प्रत्याख्यान आवश्यक का शास्त्रीय अनुचिन्तन ...353 किया हुआ पात्र। पहले जिस पात्र में विगय आदि रखी हो और बाद में उसे खाली करके निर्लेप कर दिया हो, फिर भी उसमें घृतादि की चिकनाहट या कण रह गए हों, ऐसे पात्र में आयंबिल का भोजन डालकर दिया गया आहार ग्रहण करना, लेपालेप आगार है।
यह आगार रखने पर आयंबिल के भोजन में यदि विगय के अवयव भी आ जाये तो प्रत्याख्यान भंग नहीं होता है।
पंचाशक टीका में लेपालेप की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि भोजन करने योग्य पात्र विकृति अथवा आर्द्र हाथ आदि से खरडित हो तो आयंबिल कर्ता के लिए अकल्पनीय होने से लेप कहलाता है और उसी खरडित पात्र को हाथ आदि से स्वच्छ करने पर अलेप कहलाता है। उसमें से दूसरे पात्र में भोजन ग्रहण करते हुए विगई आदि का अंश रह जाए, तदुपरांत भी व्रत भंग नहीं होता है।69
प्रत्याख्यान भाष्य में लेपालेप आगार का स्वरूप बतलाते हुए कहा है कि 'खरडिय-लहिअ-डोवाइ-लेप'- अकल्प्य पदार्थ से खरडित पात्र को कडछी आदि से साफ करके, उसमें प्रक्षिप्त किया गया आहार ग्रहण करना लेपालेप है। इस प्रकार का आहार लेने से आयंबिल व्रत का भंग नहीं होता है।70
14. गृहस्थ संसृष्ट- गृहस्थ-भोजनदाता, संसृष्ट-मिश्र हुआ, विकृति से मिश्र हुआ। गृहस्थ विगय आदि अकल्प्य वस्तु से लिप्त करछुल आदि पात्र के माध्यम से आयंबिल का आहार दे रहा हो तो वह गृहस्थ संसृष्ट आगार है।
आवश्यकनियुक्ति में संसृष्ट-असंसृष्ट की परिभाषा करते हुए कहा है- रूक्ष चावल आदि से दूध, दही आदि विकृतियाँ चार अंगुल ऊँची रहे, तब तक संसृष्ट और तेल, घृत आदि एक अंगुल ऊँचा रहे तब तक असंसृष्ट कहलाती है। आयंबिल तप में संसृष्ट मिश्रित आहार ग्रहण करने में आ जाए तो भी व्रत भंग नहीं होता है। __15. उत्क्षिप्तविवेक- उत् + क्षिप्त का अर्थ है- उठाई गयी, विवेक का अर्थ है- सर्वथा पृथक करना। शुष्क ओदन या रोटी आदि पर गुड़ तथा शक्कर आदि शुष्क विकृति पहले से रखी गई हो, तो उसे अच्छी तरह से उठा लेने के पश्चात वह दिया गया आहार ग्रहण करना, उत्क्षिप्तविवेक आगार है।
इस आगारयुक्त ग्रहण की गई रोटी आदि पर गुड़ आदि का अंश या लेप लगा हुआ रह जाए, तो भी आयंबिल खंडित नहीं होता, परन्तु समग्र रूप से