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________________ 352... षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में प्रत्याख्यानभाष्य के अनुसार विधिपूर्वक ग्रहण की गई एवं विधिपूर्वक उपभोग की गई भिक्षा में से कुछ शेष बच जाए तो वह परिष्ठापन योग्य होती है। इसके चार विकल्प बनते हैं 1. विधि ग्रहित और विधि भुक्त 2. विधि ग्रहित और अविधि भुक्त 3. अविधि ग्रहित और विधि भुक्त 4. अविधि ग्रहित और अविधि भुक्त उक्त चतु: विकल्पों में प्रथम विकल्प वाला आहार ही इस आगार में कल्प्य है, शेष तीन नहीं | 68 प्रस्तुत आगार के सम्बन्ध में यह समझ लेना भी आवश्यक है कि यदि आहार बच जाए तो उसे तुरन्त विसर्जित नहीं करना चाहिए। बल्कि मुनि आचार के अनुसार क्रमशः कम से अधिक तपस्या करने वाला मुनि उस अवशिष्ट आहार को ग्रहण करें। जैसे सबसे पहले बियासना करके उठ जाने वाला मुनि उसे उदर में समा सके तो वह ग्रहण करें। उसके अभाव में एकासना, नीवि, आयंबिल करने वाला मुनि उस अवशिष्ट आहार को ग्रहण करने का सामर्थ्य रखें, क्योंकि आहार को परठने से बहुत दोष लगता है। जबकि अपवादतः हिंसा दोष से बचने के लिए प्रत्याख्यान भंग करके भी बचे हुए आहार का भोजन करें तो लाभ मिलता है। यदि अन्य साधु न हों अथवा अवशिष्ट आहार को कोई ग्रहण ही न कर सकें तब परिष्ठापनिका आगार का उपयोग करना चाहिए। 12. चोलपट्टागार - चोल - पुरुषचिह्न और पट्ट उस अंग विशेष को ढकने वाला वस्त्र चोलपट्ट कहलाता है । अभिग्रहधारी मुनि निर्वस्त्र होकर आहार के लिए बैठा हो और उस समय कोई गृहस्थ आ जाए तो तुरन्त उठकर चोलपट्ट धारण कर लेना चोलपट्टागार है। यह आगार मुनि के लिए है, गृहस्थ श्रावक के लिए नहीं। वर्तमान की श्वेताम्बर परम्परा में निर्वस्त्री मुनि की परम्परा विच्छिन्न हो गई है अतः प्रत्याख्यानसूत्र में प्रस्तुत आगार का उच्चारण नहीं किया जाता है। यद्यपि प्रावरणा के पाँच आगार में इसका उल्लेख किया गया है। 13. लेपालेप- लेप का अर्थ है - विकृतिकारक घृत आदि एवं कांजी आदि के द्वारा लिप्त पात्र और अलेप का अर्थ है- हाथ आदि के द्वारा निर्लेप
SR No.006248
Book TitleShadavashyak Ki Upadeyta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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