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प्रत्याख्यान आवश्यक का शास्त्रीय अनुचिन्तन ...337
अर्थ- सूर्योदय से लेकर दिन के प्रथम प्रहर या डेढ प्रहर तक के लिए एकस्थान व्रत को ग्रहण करता हूँ। इस प्रत्याख्यान में अशन,पान, खादिम और स्वादिम- चारों प्रकार के आहारों का- 1. अनाभोग, 2. सहसाकार, 3. सागारिकाकार 4. गुर्वभ्युत्थान 5. पारिष्ठापनिकाकार 6. महत्तराकार एवं 7. सर्वसमाधि प्रत्ययाकार- इन सातों आगारों (अपवादों) के सिवाय पूर्णतया त्याग करता हूँ।46
विशेषार्थ-एकस्थानान्तर्गत 'स्थान' शब्द ‘स्थिति' का वाचक है अत: एक स्थान का फलितार्थ है- दाहिने हाथ एवं मुख के अतिरिक्त शेष सब अंगों को हिलाए बिना दिन में एक आसन पूर्वक एक ही बार भोजन करना अर्थात भोजन प्रारम्भ करते समय जो स्थिति, जो अंग विन्यास या जो आसन हो, उसी स्थिति, अंगविन्यास एवं आसन से भोजन की समाप्ति तक बैठे रहना चाहिए। चूर्णिकार जिनदासगणि ने एकस्थान की यही परिभाषा की है।
एकाशन और एक स्थान दोनों प्रत्याख्यानों के प्रतिज्ञासूत्र समान हैं केवल एकस्थान प्रत्याख्यानसूत्र में 'आउंटणपसारेणं' का उच्चारण नहीं किया जाता है, क्योंकि इसमें हिलने-डूलने का सर्वथा निषेध है। प्रचलित भाषा में इसे “एकलठाणा कहते हैं। आयंबिल प्रतिज्ञासूत्र ___ उग्गए सूरे पोरिसिं साड्डपोरिसिं वा आयंबिलं पच्चक्खामि। अन्नत्थणा भोगेणं, सहसागारेणं, लेवालेवेणं, उक्खित्तविवेगेणं, गिहिसंसिडेणं, पारिट्ठावणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरामि। ___अर्थ- सूर्योदय से लेकर दिन के प्रथम प्रहर या डेढ़ प्रहर तक के लिए आयंबिल तप ग्रहण करता हूँ। इस प्रत्याख्यान में 1. अनाभोग 2. सहसाकार 3. लेपालेप 4. उत्क्षिप्तविवेक 5. गृहस्थसंसृष्ट 6. पारिष्ठापनिकाकार 7. महत्तराकार 8. सर्वसमाधिप्रत्ययाकार- उक्त आठ आगारों के अतिरिक्त अनाचाम्ल आहार का त्याग करता हूँ।47
विशेषार्थ- आयंबिल में एक बार उबला हुआ आहार ग्रहण करते हैं। प्राचीन ग्रन्थों में चावल, उड़द अथवा सत्तू आदि में से किसी एक द्रव्य के द्वारा आयंबिल करने का उल्लेख है।