________________
332...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में
3. अनाभोग- गृहीत नियम की विस्मृति होने से निश्चित अवधि के पूर्व . ही कुछ खा लेना।
4. अनापृच्छा- गुरु की अनुमति के बिना ही आहार कर लेना।
5. असत्-आहार प्राप्ति न होने पर अथवा स्वयं के अनुकूल आहार न मिलने पर त्याग करना।
उक्त पाँचों में से किसी प्रकार का प्रत्याख्यान करना अशुद्ध प्रत्याख्यान है। प्रत्याख्यान के गुण-दोषों को जानने वाला ही सम्यक् प्रत्याख्यानी है।35 प्रत्याख्यानी-प्रत्याख्याता की दृष्टि से चतुर्भंगी
समझ पूर्वक किया गया प्रत्याख्यान ही शुद्ध होता है। प्रबुद्ध आचार्यों ने इस सम्बन्ध में चतुर्भंगी कही है, इस आधार पर प्रत्याख्यान के शुद्ध विकल्प का बोध हो जाता है।
जो प्रत्याख्यान विधि के ज्ञाता हैं, मूलगुण, उत्तरगुण एवं श्रद्धा आदि शुद्धि से सम्पन्न हैं वे गुरु प्रत्याख्यान दान के अधिकारी होते हैं।36
जो कृतिकर्म आदि विनय विधि में कुशल, उपयोग परायण, शुद्ध भावधारा युक्त, मोक्ष के अभिलाषी और दृढ़प्रतिज्ञ हैं वे प्रत्याख्यान करने योग्य होते हैं।37
इन दोनों के सम्बन्ध में चार विकल्प बनते हैं1. प्रत्याख्यान कराने वाला गुरु और प्रत्याख्यान करने वाला शिष्य- दोनों
उपयोगवान एवं अमायावी हो, वह शुद्ध प्रत्याख्यान है। 2. प्रत्याख्यान कराने वाला गुरु उपयोगवान एवं एकाग्रचित्त हो, प्रत्याख्यान
करने वाला किसी प्रयोजनवश उस क्षण उपयोग युक्त नहीं है, किन्तु बाद में उपयोगवान हो जाता है तो वह प्रत्याख्यान भी शुद्ध है। 3. प्रत्याख्यान कराने वाला गुरु उपयोगशून्य और प्रत्याख्यान करने वाला
शिष्य उपयोग युक्त एवं अमायावी हो, वह प्रत्याख्यान भी शुद्ध है। 4. प्रत्याख्यान कराने वाला गुरु और प्रत्याख्यान करने वाला शिष्य दोनों
उपयोगशून्य हो, वह प्रत्याख्यान अशुद्ध ही है।
इन चार विकल्पों में प्रथम विशुद्ध और अन्तिम बिल्कुल अशुद्ध प्रत्याख्यान है। द्वितीय और तृतीय विकल्प कुछ दृष्टियों से शुद्ध हैं और कुछ दृष्टियों से अशुद्ध हैं।