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प्रत्याख्यान आवश्यक का शास्त्रीय अनुचिन्तन ...331
3. विनय शुद्धि- मन, वचन एवं काया को संयमित रखते हुए प्रत्याख्यान काल में जितने खमासमण आदि का विधान है उसे यथाविधि पूर्ण करना, विनय विशुद्धि है।
4. अनुभाषण शुद्धि- प्रत्याख्यान करते समय गुरु के समक्ष बद्धाञ्जलि युक्त होकर उपस्थित होना एवं गुरु द्वारा उच्चारित सूत्र पाठ का तद्प उच्चारण करना, अनुभाषण शुद्धि है।
5. अनुपालना शुद्धि- मारणान्तिक कष्ट, मृत्यु भय, दुर्भिक्ष, भयंकर अटवि, आकस्मिक व्याधि आदि आपद् स्थितियों में भी आन्तरिक उत्साह के साथ व्रत पालन करना, अनुपालना शुद्धि है।
6. भाव शुद्धि- प्रशस्त भावना से युक्त होकर प्रत्याख्यान ग्रहण करना एवं उसका तद्योग्य पालन करना, भाव शुद्धि है।32
स्थानांगसूत्र के पंचम स्थान में ज्ञान शुद्धि के सिवाय शेष पाँच शुद्धियों का ही उल्लेख है।33 श्रद्धान शुद्धि में ज्ञान शुद्धि का अन्तर्भाव हो जाता है, क्योंकि श्रद्धा के साथ ज्ञान होता ही है। नियुक्तिकार ने स्पष्ट प्रतिपत्ति के लिए ज्ञान शुद्धि का स्वतन्त्र रूपेण उल्लेख किया है।
दिगम्बर आम्नाय के मूलाचार में प्रत्याख्यान शुद्धि चार प्रकार की बतलाई गई है- 1. विनय शुद्धि 2. अनुभाषा शुद्धि 3. अनुपालन शुद्धि और 4. परिणाम शुद्धि। आचार्य वट्टकेर कहते हैं कि जिस प्रत्याख्यान में विनय के साथ, अनुभाषा के साथ, प्रतिपालना के साथ और परिणाम शुद्धि के साथ आहारादि का त्याग किया जाता है वह प्रत्याख्यान शुद्ध प्रत्याख्यान है।34 प्रत्याख्यान की अशोधि के स्थान
असंक्लिष्ट चित्त से किया गया प्रत्याख्यान शुद्ध तथा कषाय और विषय से अनुरंजित चित्त द्वारा गृहीत प्रत्याख्यान अशुद्ध होता है। प्रत्याख्यान की अशोधि के मुख्य पाँच हेतु हैं
1. स्तब्धता- 'अमुक तपस्वी की पूजा हो रही है, यदि मैं तप करूंगा तो मेरी भी पूजा होगी'- इस भावना से तप करना।
2. क्रोध- गुरु आदि के कठोर शब्द सुनकर यह सोचना कि मैं तिरस्कृत हुआ हूँ- अत: आहार नहीं करना।