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कायोत्सर्ग आवश्यक का मनोवैज्ञानिक अनुसंधान ...305 दूर करने के लिए, गमनागमन की प्रवृत्ति करने के बाद शुद्ध होने के लिए, प्रमार्जन करते समय, अशुचि द्रव्यों का परित्याग करते समय आदि अनेक दोषजन्य प्रवृत्तियों से निवृत्त एवं आत्मविशुद्धनार्थ इस सूत्र का उपयोग होता है।
• प्रत्येक धार्मिक क्रिया के प्रारम्भ में ईर्यापथिक प्रतिक्रमण करने का निर्देश है। इस विषय में शास्त्र प्रमाण है कि
ववहारावस्सयमहा-निसीह, भगवइविवाहचूलासु। पडिक्कमणचुण्णिमाइस, पढमंइरियापडिक्कमणं ।।
व्यवहारसूत्र, आवश्यकसूत्र, महानिशीथसूत्र, भगवतीसूत्र, प्रतिक्रमण चूर्णि आदि में सर्वप्रथम इरियावहि प्रतिक्रमण करने का निर्देश दिया गया है।
• सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव की विराधना को भी दुष्कृत समझना और उस दुष्कर्म को नीरस करने के लिए उदार हृदयी होना- इस सूत्र का प्रधान अंग है। इसमें उल्लिखित 'मिच्छा मि दुक्कडं'- ये तीन पद प्रतिक्रमण के बीज रूप होने से पुनः पुनः मननीय है। हमारे द्वारा किसी जीव का अपराध हुआ हो तो उससे क्षमायाचना करना, मिच्छामि दुक्कडं की क्रिया कहलाती है।
• शास्त्रकारों ने ईर्यापथिक प्रतिक्रमण के 1824120 विकल्प (भंग) बतलाये हैं जो इस प्रकार है- इस सृष्टि में मुख्य रूप से 563 प्रकार के जीव हैं। उन जीवों की अभिहया, वत्तिया आदि दसविध विराधना होती है। दस प्रकार
की विराधना का राग-द्वेष, तीन योग, तीन करण, तीन काल और अरिहंत, सिद्ध, साधु, देव, गुरु, आत्मा- इन छ: की साक्षी से गुणा करने पर अनुक्रम से 563x10x2x3x3x3x4=1824120 भेद होते हैं।
• साध्वाचार में लगे हुए अतिचारों के निवारण करने के लिए भी यह सूत्र बोला जाता है। ___ • आवश्यकसूत्र के तीसरे अध्ययन में यह सूत्र पाठ है।
• प्रस्तुत सूत्र का ईर्यापथिकसूत्र नाम इसलिए है कि ईर्या का अर्थ हैगमन, गमन प्रधान मार्ग-पथ, ईर्यापथ कहलाता है। ईर्यापथ में होने वाली क्रिया ऐर्यापथिकी कहलाती है। ऐर्यापथिकी (गमनागमनादि के समय असावधानी वश होने वाली दूषण रूप) क्रिया की शुद्धि के लिए बोला जाने वाला प्रायश्चित्त रूप सूत्र ईर्यापथिक सूत्र कहलाता है। इस व्याख्या से सुस्पष्ट होता है कि इस सूत्र के द्वारा गमनागमन की क्रिया के दरम्यान प्रमाद या अज्ञानवश हुई जीवविराधना के