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________________ कायोत्सर्ग आवश्यक का मनोवैज्ञानिक अनुसंधान ...289 यह यथाख्यात अवस्था भेद विज्ञान के अनुभव से होती है। पातंजल योगदर्शन में भेद विज्ञान को विवेक और उसके अनुभव को ख्याति कहा है। विवेक ख्याति का फल संप्रज्ञात समाधि है। जब अप्रयत्न अवस्था दृढ़ हो जाती है और स्वभाव रूप हो जाती है तब वह सदा के लिए हो जाती है, फिर अहंभाव का सदा के लिए विसर्जन हो जाता है। अहं से अचेतन का सम्बन्ध विच्छेद होने, असंग हो जाने से अहं 'है' में लीन हो जाता है। उसके बाद साधक शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, संसार आदि से अतीत हो जाता है। साथ ही इनसे कुछ प्राप्य शेष न रहने से भोक्तृत्व भाव और कर्त्तव्य शेष न रहने से कर्तृत्व भाव शेष नहीं रहता है ज्ञेय शेष न रहने से ज्ञाता भाव शेष नहीं रहता है- केवल ज्ञान रहता है। देखना शेष न रहने से दृश्य और द्रष्टा भाव भी शेष नहीं रहता है, केवल दर्शन रहता है। यह असंप्रज्ञात समाधि है, कायोत्सर्ग की परावधि है और यही कैवल्य है। कायोत्सर्ग की आवश्यकता क्यों? कायोत्सर्ग एक महत्त्वपूर्ण साधना है। इस साधनात्मक प्रयोग का मूल आशय देह के प्रति जो अनुराग है, उसके प्रति उदासीन एवं विरक्त हो जाना है। सामान्यत: व्रत-नियम में लगे हुए दोषों से मलिन बनी हुई आत्मा की विशुद्धि आलोचना एवं प्रतिक्रमण के द्वारा की जाती है, परन्तु कुछ अतिचार उस कोटि के होते हैं कि उनकी शुद्धि के लिए विशिष्ट क्रिया आवश्यक है। शास्त्रकारों के अभिप्राय से अग्रिम चार प्रकार की क्रिया विशिष्ट मानी गई हैं- 1. उत्तरीकरण 2. प्रायश्चित्तकरण 3. विशोधीकरण और 4 विशल्लीकरण। ये चारों क्रियानुष्ठान यथावत रूप से किए जाएं तो किसी भी तरह के अतिचारों का शोधन और पापकर्मों का सर्वांश नाश किया जा सकता है। उपरोक्त चारों क्रियाएँ कायोत्सर्ग में अवस्थित रहकर ही सम्भव है। इसलिए कायोत्सर्ग का आश्रय लिया जाता है। 1. उत्तरीकरण- उत्तर का अर्थ है सम्यक अथवा सुंदर, करण का अर्थ है क्रिया को साध्य करने वाला साधन। जो क्रिया असम्यक या असुंदर थी अथवा अनागत काल में असम्यक् रूप होने वाली है उसे सम्यक करने वाला साधन उत्तरीकरण कहलाता है। आवश्यकनियुक्तिकार ने समझाया है कि जैसे गाड़ी, रथ और घर आदि खंडित या जीर्ण-शीर्ण हो जाए तो उसका पुनः
SR No.006248
Book TitleShadavashyak Ki Upadeyta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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