SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 328
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 270...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में तुलनात्मक दृष्टि से कहा जाए तो आवश्यकनियुक्ति और विजयोदयावृत्ति में कायोत्सर्ग सम्बन्धी जो उच्छ्वास संख्या दी गई है, उसमें एकरूपता नहीं है। अभिभव कायोत्सर्ग का काल- अभिभव कायोत्सर्ग का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट एक वर्ष का है। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के सुपुत्र बाहुबलि ने एक वर्ष तक कायोत्सर्ग किया था। यह कायोत्सर्ग विशेष स्थिति में ही किया जाता है। कायोत्सर्ग भंग के अपवाद जैन दर्शन समन्वयवादी है। वह उत्सर्ग और अपवाद द्विविध मार्गों पर आश्रित है, इसीलिए भारतीय दर्शनों में प्रथम स्थान रखता है। जिनमत के अनुसार उत्सर्ग मार्ग साधना का उत्कृष्ट मार्ग है, फिर भी विशेष परिस्थिति में अपवाद मार्ग का अनुसरण भी श्रेष्ठ माना गया है। कायोत्सर्ग निर्दोष होना चाहिए, पूर्ण होना चाहिए, किन्तु कुछ स्थितियों में कायोत्सर्ग का भंग करने पर भी वह अखंड रहता है। तत्सम्बन्धी अपवाद निम्न हैं शरीर पर प्रकाश पड़ रहा हो, तो कम्बली आदि ओढ़ने से, वर्षा की बूंदे गिर रही हो, तो एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने से, छींक आदि आने पर मुखवस्त्रिका द्वारा मुख ढ़कने से, मूर्छा आदि आने पर नीचे बैठने से कायोत्सर्ग भंग नहीं होता है, अन्यथा विद्युत प्रकाश गिरने पर, खांसी या जंभाई लेते समय मुँह खुला होने पर, मूर्छा आदि के कारण नीचे गिर जाने पर संयम एवं आत्मा की विराधना होती है। वसति या समीप में अग्नि का उपद्रव होने पर • बिल्ली, चूहा आदि जीवों का व्यवधान होने पर • चोर आदि का उपद्रव होने पर • मल, श्लेष्म, वात आदि से क्षुभित होने पर • सर्प- आदि सिंह का भय होने पर • कदाचित मुनि या श्रावक आदि को सर्प या बिच्छू डस रहा हो, उस समय कायोत्सर्ग भग्न करने पर भी कायोत्सर्ग अभग्न ही रहता है। उक्त कारणों के अतिरिक्त विद्युतपात, मेघसंपात, स्वचक्र या परचक्र, राजभय आदि होने पर भी कायोत्सर्ग को बीच में पूर्ण करने पर कोई दोष नहीं लगता है। नियमत: कायोत्सर्ग जितने श्वासोश्वास परिमाण का हो उतने श्वासोश्वास पूर्ण होने के बाद ही 'नमो अरिहंताणं' पद बोलकर कायोत्सर्ग पूर्ण करना चाहिए।
SR No.006248
Book TitleShadavashyak Ki Upadeyta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy