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________________ 244... षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में का भी बोध करवाता है। अंतिम अर्थ में इस शब्द का प्रसिद्धि इतनी अधिक हो गई है कि आजकल 'आवश्यक' शब्द का प्रयोग न करके सब कोई छहों आवश्यकों के लिए ‘प्रतिक्रमण' शब्द का प्रयोग करते हैं। इस तरह व्यवहार में और अर्वाचीन ग्रंथों में 'प्रतिक्रमण' शब्द एक प्रकार से 'आवश्यक' शब्द का पर्याय हो गया है। प्राचीन ग्रन्थों में सामान्य आवश्यक के अर्थ में 'प्रतिक्रमण' शब्द का प्रयोग कहीं देखने में नहीं आया है। प्रतिक्रमणहेतुगर्भ, प्रतिक्रमणविधि, धर्मसंग्रह आदि अर्वाचीन ग्रन्थों में 'प्रतिक्रमण' शब्द सामान्य 'आवश्यक' के अर्थ में प्रयुक्त है और सर्व साधारण भी सामान्य 'आवश्यक' के अर्थ में प्रतिक्रमण शब्द का प्रयोग अस्खलित रूप से करते हुए देखे जाते हैं। प्रतिक्रमण का शाब्दिक अर्थ है- पुनः लौटना, असंयम से संयम में लौटना । 'प्रति' उपसर्ग पूर्वक 'क्रम' धातु से 'ल्युट्' प्रत्यय लगकर प्रतिक्रमण शब्द बना है। प्रति का अर्थ है - पुनः, क्रमण का अर्थ है - लौटना अर्थात पाप कार्यों से पुनः लौटना प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण एक प्रशस्त क्रिया है अतः प्रत्येक स्थिति में पुनः लौटना यह अर्थ युक्ति संगत नहीं होता है, इसलिए यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि कौन ? किससे ? किन उद्देश्यों से पुन: लौटे ? इन प्रश्नों का संक्षिप्त उत्तर यह है कि आत्मा को प्रमादस्थान या पापस्थान से पीछे लौटना है। इस प्रसंग को अधिक स्पष्टता के साथ कहा जाए तो अनन्त चतुष्ट्य रूप स्वस्थान से प्रमाद आदि परस्थान में गयी हुई आत्मा को फिर से मूल स्थान में लाने की क्रिया करना प्रतिक्रमण कहलाता है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र- ये आत्मा के स्वस्थान हैं और प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, रति- अरति, पर-परिवाद, माया - मृषावाद और मिथ्यात्वशल्य - ये अठारह पाप परस्थान हैं। संसारी आत्मा प्रमादवश स्वस्थान को छोड़कर परस्थान की ओर अभिमुख होती है। यहाँ 'प्रमाद' शब्द से मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय- इन चतुष्क का ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि पापकर्म की प्रवृत्ति करने में ये सभी सहकारी कारण हैं। मिथ्यात्व का अर्थ - विपरीत श्रद्धान, अविरति का अर्थअसंयम, प्रमाद का अर्थ - ध्येय के प्रति उदासीन या निरपेक्ष भाव और कषाय
SR No.006248
Book TitleShadavashyak Ki Upadeyta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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